सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर कोई अदालत किसी याचिका के दायरे से बाहर जाती है, संबंधित पक्षों को आश्चर्यचकित करती है और कोई कड़ी टिप्पणी करती है, तो इससे अन्य संभावित वादियों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन की पीठ ने चिन्मय मिशन शैक्षिक एवं सांस्कृतिक ट्रस्ट और कोचीन देवस्वोम बोर्ड के बीच एक दीवानी विवाद पर सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की। इस मामले में केरल उच्च न्यायालय ने एक भूमि के संबंध में लाइसेंस शुल्क तय करने का निर्देश दिया है और बोर्ड से मुख्य सतर्कता अधिकारी के माध्यम से बोर्ड और ट्रस्ट के बीच हुए लेन-देन के सिलसिले में जांच करने तथा निष्कर्षों के आधार पर आवश्यक कार्रवाई करने को कहा है। पीठ ने मामले में ट्रस्ट की ओर से दाखिल याचिका को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया। उसने कहा कि मौजूदा मामले में उच्च न्यायालय ने अपने पूर्व के निर्णयों को ध्यान में रखते हुए लाइसेंस शुल्क निर्धारित करने का निर्देश दिया है, लेकिन ट्रस्ट को यह स्पष्ट करने का कोई मौका नहीं दिया गया कि पूर्व के निर्णय संबंधित लेन-देन पर लागू होते हैं या नहीं। पीठ ने कहा कि मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए मुख्य सतर्कता अधिकारी को याचिकाकर्ता को पट्टे पर जमीन देने से संबंधित मामले की जांच करने का निर्देश देना उचित नहीं है। उसने कहा, इस तरह की जांच के निर्देश पक्षकारों की छवि और प्रतिष्ठा पर गंभीर रूप से प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं। यहां तक कि मामले में, अगर उच्च न्यायालय ऐसे निर्देश देने के लिए बाध्य था, तो उसे याचिकाकर्ताओं को भी सूचित करना चाहिए था। पीठ ने कहा, हमारा मानना है कि उच्च न्यायालय का ऐसे निर्देश जारी करना उचित नहीं था... ये निर्देश रिट याचिका के दायरे से बाहर थे। याचिकाकर्ताओं को उनकी अपनी रिट याचिका में इससे खराब सजा नहीं दी जा सकती थी। इसके अलावा, ये निर्देश याचिकाकर्ताओं को सूचित किए बिना ही जारी कर दिए गए। उसने कहा कि याचिकाकर्ता उच्च न्यायालय की कार्रवाई से पूरी तरह से आश्चर्यचकित हैं। पीठ ने कहा, एक पक्ष प्रतिवादी की ओर से उसके खिलाफ उठाए गए कदम से व्यथित होकर न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का आह्वान करता है। इस मामले में, याचिकाकर्ता सालाना शुल्क में एकतरफा वृद्धि से व्यथित थे, जिसे 227.25 रुपये से बढ़ाकर 1.5 लाख रुपये कर दिया गया था। उच्च न्यायालय का उक्त निर्णय की सत्यता की जांच करना उचित था। उसने कहा, इस मामले में उच्च न्यायालय ने पाया कि प्रतिवादियों का वार्षिक लाइसेंस शुल्क बढ़ाकर 1.5 लाख रुपये करने का फैसला उचित था। ऐसा करने के बाद, उसे रिट याचिका को खारिज करके उसका निपटारा कर देना चाहिए था। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह सर्वविदित है कि अगर किसी असाधारण मामले में अदालत को रिट याचिका के दायरे से बाहर जाकर टिप्पणियां करने की आवश्यकता महसूस होती है, तो कम से कम पक्षकार को अपना पक्ष रखने और बचाव करने का अवसर दिया जाना चाहिए। ट्रस्ट की याचिका को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए पीठ ने कहा कि मुख्य सतर्कता अधिकारी की जांच पूरी तरह से अनुचित थी और यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हुए की गई थी।