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07-10-2025

एशिया की कार्बन कैप्चर और स्टोरेज नीति से 2050 तक 25 अरब टन अतिरिक्त एमिशन हो सकता है

  •  एशियाई देशों द्वारा जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन को कम करने के लिए कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) तकनीक का बढ़ता समर्थन 2050 तक लगभग 25 अरब टन अतिरिक्त ग्रीनहाउस गैसों का कारण बन सकता है, जिससे पेरिस समझौते के लक्ष्य कमजोर पड़ सकते हैं और इन देशों की अर्थव्यवस्थाओं को खतरा हो सकता है। यह चेतावनी ‘क्लाइमेट एनालिटिक्स’ नामक वैश्विक जलवायु विज्ञान एवं नीति संस्थान की नई रिपोर्ट में दी गई है।कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) तकनीक का उद्देश्य बिजली संयंत्रों और औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले कार्बन डाइऑक्साइड को पकडक़र उसे भूमिगत संरचनाओं में जमा करना है, ताकि वह वातावरण में न जा सके। रिपोर्ट में चीन, भारत, जापान, दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया, थाईलैंड, मलेशिया, सिंगापुर और ऑस्ट्रेलिया में सीसीएस की वर्तमान और संभावित स्थिति का विश्लेषण किया गया। ये देश मिलकर वैश्विक जीवाश्म ईंधन उपयोग और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का आधे से अधिक हिस्सा रखते हैं।  रिपोर्ट के अनुसार, भारत और दक्षिण व दक्षिण-पूर्व एशिया के अन्य विकासशील देशों में उत्सर्जन अभी चरम पर नहीं पहुंचा है, जबकि इसे जल्द घटाने की आवश्यकता है। चीन और भारत जैसे बड़े उत्सर्जक देशों की नीतियां वैश्विक जलवायु कार्रवाई को निर्णायक रूप से प्रभावित करेंगी। इस्पात और सीमेंट का प्रमुख उत्पादक भारत इन क्षेत्रों में सीसीएस तकनीक अपना सकता है।  हालांकि, रिपोर्ट में कहा गया है कि नवीकरणीय ऊर्जा, विद्युतीकरण और ग्रीन हाइड्रोजन जैसी सस्ती और सुरक्षित तकनीकें पहले से मौजूद हैं।  रिपोर्ट में कहा गया है, क्षेत्र के प्रमुख उत्सर्जक देशों चीन और भारत की सीसीएस (कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज) योजनाएं अभी स्पष्ट नहीं हैं। चीन पहले से ही इस तकनीक में मजबूत उपस्थिति रखता है, लेकिन साथ ही यह शून्य-उत्सर्जन तकनीकों को अपनाने में भी सबसे आगे है। यदि भविष्य में चीन या भारत सीसीएस पर अत्यधिक निर्भर हो जाते हैं, तो इसके जलवायु पर गंभीर और विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं।  रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि अब तक सीसीएस परियोजनाओं का प्रदर्शन कमजोर रहा है, जहां कार्बन कैप्चर दर 90-95 प्रतिशत के बजाय औसतन 50 प्रतिशत तक ही रही है। बिजली क्षेत्र में इसका उपयोग बिजली को नवीकरणीय ऊर्जा की तुलना में दोगुना महंगा बना सकता है। क्लाइमेट एनालिटिक्स ने सुझाव दिया कि एशियाई देशों को ‘‘कम सीसीएस मार्ग’’ अपनाते हुए नवीकरणीय ऊर्जा, दक्षता और विद्युतीकरण को प्राथमिकता देनी चाहिए, जो जलवायु लक्ष्यों के अनुरूप और अधिक किफायती समाधान होगा।

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एशिया की कार्बन कैप्चर और स्टोरेज नीति से 2050 तक 25 अरब टन अतिरिक्त एमिशन हो सकता है

 एशियाई देशों द्वारा जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन को कम करने के लिए कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) तकनीक का बढ़ता समर्थन 2050 तक लगभग 25 अरब टन अतिरिक्त ग्रीनहाउस गैसों का कारण बन सकता है, जिससे पेरिस समझौते के लक्ष्य कमजोर पड़ सकते हैं और इन देशों की अर्थव्यवस्थाओं को खतरा हो सकता है। यह चेतावनी ‘क्लाइमेट एनालिटिक्स’ नामक वैश्विक जलवायु विज्ञान एवं नीति संस्थान की नई रिपोर्ट में दी गई है।कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) तकनीक का उद्देश्य बिजली संयंत्रों और औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले कार्बन डाइऑक्साइड को पकडक़र उसे भूमिगत संरचनाओं में जमा करना है, ताकि वह वातावरण में न जा सके। रिपोर्ट में चीन, भारत, जापान, दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया, थाईलैंड, मलेशिया, सिंगापुर और ऑस्ट्रेलिया में सीसीएस की वर्तमान और संभावित स्थिति का विश्लेषण किया गया। ये देश मिलकर वैश्विक जीवाश्म ईंधन उपयोग और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का आधे से अधिक हिस्सा रखते हैं।  रिपोर्ट के अनुसार, भारत और दक्षिण व दक्षिण-पूर्व एशिया के अन्य विकासशील देशों में उत्सर्जन अभी चरम पर नहीं पहुंचा है, जबकि इसे जल्द घटाने की आवश्यकता है। चीन और भारत जैसे बड़े उत्सर्जक देशों की नीतियां वैश्विक जलवायु कार्रवाई को निर्णायक रूप से प्रभावित करेंगी। इस्पात और सीमेंट का प्रमुख उत्पादक भारत इन क्षेत्रों में सीसीएस तकनीक अपना सकता है।  हालांकि, रिपोर्ट में कहा गया है कि नवीकरणीय ऊर्जा, विद्युतीकरण और ग्रीन हाइड्रोजन जैसी सस्ती और सुरक्षित तकनीकें पहले से मौजूद हैं।  रिपोर्ट में कहा गया है, क्षेत्र के प्रमुख उत्सर्जक देशों चीन और भारत की सीसीएस (कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज) योजनाएं अभी स्पष्ट नहीं हैं। चीन पहले से ही इस तकनीक में मजबूत उपस्थिति रखता है, लेकिन साथ ही यह शून्य-उत्सर्जन तकनीकों को अपनाने में भी सबसे आगे है। यदि भविष्य में चीन या भारत सीसीएस पर अत्यधिक निर्भर हो जाते हैं, तो इसके जलवायु पर गंभीर और विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं।  रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि अब तक सीसीएस परियोजनाओं का प्रदर्शन कमजोर रहा है, जहां कार्बन कैप्चर दर 90-95 प्रतिशत के बजाय औसतन 50 प्रतिशत तक ही रही है। बिजली क्षेत्र में इसका उपयोग बिजली को नवीकरणीय ऊर्जा की तुलना में दोगुना महंगा बना सकता है। क्लाइमेट एनालिटिक्स ने सुझाव दिया कि एशियाई देशों को ‘‘कम सीसीएस मार्ग’’ अपनाते हुए नवीकरणीय ऊर्जा, दक्षता और विद्युतीकरण को प्राथमिकता देनी चाहिए, जो जलवायु लक्ष्यों के अनुरूप और अधिक किफायती समाधान होगा।


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