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05-06-2025

कॉमर्शियल विवादों में मुकदमा-पूर्व मध्यस्थता जरूरी : अदालत, एमसीडी पर एक लाख रुपये का जुर्माना

  •  दिल्ली उच्च न्यायालय ने कॉमर्शियल विवादों में अनिवार्य मुकदमा-पूर्व मध्यस्थता में भाग नहीं लेने पर दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) पर एक लाख रुपये का जुर्माना लगाने के फैसले को बरकरार रखा है। न्यायमूर्ति नवीन चावला और न्यायमूर्ति रेणु भटनागर की पीठ ने कहा कि एमसीडी एक सार्वजनिक प्राधिकरण है, जिस पर कॉमर्शियल न्यायालय अधिनियम के उद्देश्य को पूरा करने और अदालतों पर बोझ कम करने की अधिक जिम्मेदारी है, इसलिए वह एक साधारण वादी की तरह काम नहीं कर सकता। एमसीडी ने पक्षों के बीच मुकदमा-पूर्व मध्यस्थता के मुद्दे पर तत्कालीन जिला न्यायाधीश सुरिंदर एस. राठी के 10 दिसंबर, 2024 के फैसले को चुनौती दी थी। पीठ ने कहा, ‘‘अपीलकर्ता दिल्ली नगर निगम अधिनियम, 1957 के तहत गठित एक सार्वजनिक प्राधिकरण है, इसलिए वह एक साधारण वादी के रूप में कार्य नहीं कर सकता और अधिनियम के उद्देश्य को विफल नहीं कर सकता। वास्तव में, उस पर यह सुनिश्चित करने की और भी बड़ी जिम्मेदारी है कि अधिनियम का उद्देश्य प्राप्त हो; अदालतों पर बोझ कम हो; और अनावश्यक मुकदमेबाजी को प्रारंभिक चरण में ही समाप्त कर दिया जाए।’’ तेरह मई के आदेश में कहा गया, ‘‘पूर्व-संस्थागत मध्यस्थता के लिए नोटिस का जवाब न देकर, अपीलकर्ता ने स्पष्ट रूप से अधिनियम के उद्देश्य को विफल किया है तथा अपने सार्वजनिक कार्य और कर्तव्यों के विपरीत कार्य किया है।’’ निचली अदालत ने कहा था कि वैधानिक अधिसूचना और उच्चतम न्यायालय द्वारा इसकी सख्त व्याख्या के बावजूद यह देखना ‘‘आश्चर्यजनक’’ है कि एमसीडी और उसके अधिकारियों के मन में संसद द्वारा पारित कानून या शीर्ष अदालत के फैसले के प्रति कोई सम्मान नहीं है, जो संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत कानून है। पीठ ने कहा, ‘‘इस बात का कोई ठोस कारण नहीं बताया गया है कि एमसीडी या उसके अधिकारियों ने पूर्व-संस्थागत मध्यस्थता में भाग क्यों नहीं लिया।’’ अधिनियम की धारा 12-ए में मुकदमा दायर करने से पहले पूर्व-संस्थागत मध्यस्थता की अनिवार्य आवश्यकता को रेखांकित किया गया है, बशर्ते तत्काल अंतरिम राहत की मांग न की गई हो। यह मामला एमसीडी के एक सूचीबद्ध ठेकेदार द्वारा दायर किए गए धन संबंधी वाद से जुड़ा है। कानून के अनुसार, ठेकेदार ने पूर्व-संस्थागत मध्यस्थता के लिए तीस हजारी अदालत में जिला विधिक सेवा प्राधिकरण से संपर्क किया। हालाँकि नोटिस एमसीडी को दिया गया था, लेकिन इसके अधिकारियों ने मध्यस्थता में भाग नहीं लिया, जिसके कारण प्रक्रिया विफल हो गई और ठेकेदार को कॉमर्शियल मुकदमा दायर करने के लिए बाध्य होना पड़ा। उच्च न्यायालय ने अपील पर विचार करते हुए कहा कि निचली अदालत द्वारा एमसीडी पर एक लाख रुपये का जुर्माना लगाए जाने के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका में कोई दम नहीं है, जिसे अधिवक्ता कल्याण कोष, दिल्ली बार एसोसिएशन में जमा किया जाना है। हालांकि, उच्च न्यायालय ने ठेकेदार के पक्ष में 35 लाख रुपये से अधिक की राशि देने के आदेश के क्रियान्वयन पर अगले आदेश तक रोक लगा दी। इसने कहा कि संस्थागत-पूर्व मध्यस्थता प्रक्रिया में भाग नहीं लेने पर एमसीडी पर लगाया गया जुर्माना उसे आदेश की तारीख से दो सप्ताह के भीतर जमा करना होगा। दूसरी ओर, एमसीडी के वकील ने तर्क दिया कि मुकदमा-पूर्व मध्यस्थता में भाग लेना अनिवार्य नहीं है, इसलिए किसी पक्ष द्वारा इसमें भाग न लेने पर जुर्माना नहीं लगाया जा सकता। हालांकि, उच्च न्यायालय ने कहा कि कॉमर्शियल न्यायालय अधिनियम में धारा 12ए को वाणिज्यिक विवादों के समाधान की प्रक्रिया में तेजी लाने के विशिष्ट उद्देश्य और इरादे से शामिल किया गया था।

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कॉमर्शियल विवादों में मुकदमा-पूर्व मध्यस्थता जरूरी : अदालत, एमसीडी पर एक लाख रुपये का जुर्माना

 दिल्ली उच्च न्यायालय ने कॉमर्शियल विवादों में अनिवार्य मुकदमा-पूर्व मध्यस्थता में भाग नहीं लेने पर दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) पर एक लाख रुपये का जुर्माना लगाने के फैसले को बरकरार रखा है। न्यायमूर्ति नवीन चावला और न्यायमूर्ति रेणु भटनागर की पीठ ने कहा कि एमसीडी एक सार्वजनिक प्राधिकरण है, जिस पर कॉमर्शियल न्यायालय अधिनियम के उद्देश्य को पूरा करने और अदालतों पर बोझ कम करने की अधिक जिम्मेदारी है, इसलिए वह एक साधारण वादी की तरह काम नहीं कर सकता। एमसीडी ने पक्षों के बीच मुकदमा-पूर्व मध्यस्थता के मुद्दे पर तत्कालीन जिला न्यायाधीश सुरिंदर एस. राठी के 10 दिसंबर, 2024 के फैसले को चुनौती दी थी। पीठ ने कहा, ‘‘अपीलकर्ता दिल्ली नगर निगम अधिनियम, 1957 के तहत गठित एक सार्वजनिक प्राधिकरण है, इसलिए वह एक साधारण वादी के रूप में कार्य नहीं कर सकता और अधिनियम के उद्देश्य को विफल नहीं कर सकता। वास्तव में, उस पर यह सुनिश्चित करने की और भी बड़ी जिम्मेदारी है कि अधिनियम का उद्देश्य प्राप्त हो; अदालतों पर बोझ कम हो; और अनावश्यक मुकदमेबाजी को प्रारंभिक चरण में ही समाप्त कर दिया जाए।’’ तेरह मई के आदेश में कहा गया, ‘‘पूर्व-संस्थागत मध्यस्थता के लिए नोटिस का जवाब न देकर, अपीलकर्ता ने स्पष्ट रूप से अधिनियम के उद्देश्य को विफल किया है तथा अपने सार्वजनिक कार्य और कर्तव्यों के विपरीत कार्य किया है।’’ निचली अदालत ने कहा था कि वैधानिक अधिसूचना और उच्चतम न्यायालय द्वारा इसकी सख्त व्याख्या के बावजूद यह देखना ‘‘आश्चर्यजनक’’ है कि एमसीडी और उसके अधिकारियों के मन में संसद द्वारा पारित कानून या शीर्ष अदालत के फैसले के प्रति कोई सम्मान नहीं है, जो संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत कानून है। पीठ ने कहा, ‘‘इस बात का कोई ठोस कारण नहीं बताया गया है कि एमसीडी या उसके अधिकारियों ने पूर्व-संस्थागत मध्यस्थता में भाग क्यों नहीं लिया।’’ अधिनियम की धारा 12-ए में मुकदमा दायर करने से पहले पूर्व-संस्थागत मध्यस्थता की अनिवार्य आवश्यकता को रेखांकित किया गया है, बशर्ते तत्काल अंतरिम राहत की मांग न की गई हो। यह मामला एमसीडी के एक सूचीबद्ध ठेकेदार द्वारा दायर किए गए धन संबंधी वाद से जुड़ा है। कानून के अनुसार, ठेकेदार ने पूर्व-संस्थागत मध्यस्थता के लिए तीस हजारी अदालत में जिला विधिक सेवा प्राधिकरण से संपर्क किया। हालाँकि नोटिस एमसीडी को दिया गया था, लेकिन इसके अधिकारियों ने मध्यस्थता में भाग नहीं लिया, जिसके कारण प्रक्रिया विफल हो गई और ठेकेदार को कॉमर्शियल मुकदमा दायर करने के लिए बाध्य होना पड़ा। उच्च न्यायालय ने अपील पर विचार करते हुए कहा कि निचली अदालत द्वारा एमसीडी पर एक लाख रुपये का जुर्माना लगाए जाने के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका में कोई दम नहीं है, जिसे अधिवक्ता कल्याण कोष, दिल्ली बार एसोसिएशन में जमा किया जाना है। हालांकि, उच्च न्यायालय ने ठेकेदार के पक्ष में 35 लाख रुपये से अधिक की राशि देने के आदेश के क्रियान्वयन पर अगले आदेश तक रोक लगा दी। इसने कहा कि संस्थागत-पूर्व मध्यस्थता प्रक्रिया में भाग नहीं लेने पर एमसीडी पर लगाया गया जुर्माना उसे आदेश की तारीख से दो सप्ताह के भीतर जमा करना होगा। दूसरी ओर, एमसीडी के वकील ने तर्क दिया कि मुकदमा-पूर्व मध्यस्थता में भाग लेना अनिवार्य नहीं है, इसलिए किसी पक्ष द्वारा इसमें भाग न लेने पर जुर्माना नहीं लगाया जा सकता। हालांकि, उच्च न्यायालय ने कहा कि कॉमर्शियल न्यायालय अधिनियम में धारा 12ए को वाणिज्यिक विवादों के समाधान की प्रक्रिया में तेजी लाने के विशिष्ट उद्देश्य और इरादे से शामिल किया गया था।


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