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12-07-2025

तीज त्यौहारों पर भी पड़ रहा है मैट्रो लाइफस्टाइल का असर

  •  मैट्रो शहरों की बदलती लाइफस्टाइल और बिजी शेड्यूल से ट्रेडीशनल फेस्टीवल्स भी अछूते नहीं रहे हैं। सावन के महीने में विशेष रूप से की जाने वाली भगवान शिव की पूजा से जुड़ी परंपराओं पर भी इसका असर पड़ा है। सावन मास की शुरुआत हो गई है और सावन के पहले सोमवार का व्रत 14 जुलाई को रखा जाएगा। शहर की कई कामकाजी महिलाओं का मानना है कि व्यस्त जीवनशैली के कारण अब वह समय नहीं रहा जब कॉलोनियों में सावन के महीने में झूले डाले जाते थे और महिलाएं सामूहिक रूप से गीत गाती थीं। महिलाओं को इस बात की टीस रहती है कि अब न तो मोहल्लों में पेड़ों पर झूले दिखाई देते हैं और न ही पारंपरिक लोकगीतों की गूंज सुनाई देती है। हालांकि उनका कहना था कि धार्मिक भावना आज भी उतनी ही मजबूत है, लेकिन अभिव्यक्ति के तौर-तरीकों में बदलाव आ गया है। दक्षिण दिल्ली में पार्लर चला रहीं पल्लवी के अनुसार  धार्मिक रीति-रिवाज हमारी सांस्कृतिक पहचान से जुड़े हैं लेकिन समय की कमी के चलते मैं उतने विधि-विधान से पूजा नहीं कर पाती हैं, जैसा कि मेरी मां और दादी-नानी किया करती थीं। राजधानी में जहां एक ओर कामकाजी महिलाएं डिजिटल माध्यम से कथा और भजन सुनकर व्रत की परंपरा निभाती हैं, वहीं गृहिणियां सुबह से ही मंदिरों में जाकर शिवलिंग का अभिषेक करने की तैयारी करती हैं। भागदौड़ वाली जिंदगी में धार्मिक रीति-रिवाजों को सहेजना थोड़ा मुश्किल होता है । इसलिए केवल घर पर ही शिवलिंग की पूजा कर सावन का पर्व मनाती हूं। हालांकि महानगरों को छोड़ दें तो छोटे शहरों में महिलाएं अभी भी धामिर्क मान्याताओं और रीति-रिवाजों का पालन करती हैं। प्रयागराज की ‘आशा’ कार्यकर्ता रेखा के अनुसार परिवार का पेट-पालने के लिए जितना दो पैसे कमाना जरुरी है, उतना ही रीति-रिवाज, तीज त्यौहार मनाना भी जरूरी है। एक कार्पोरेट कंपनी में काम करने वाली पूर्वी दिल्ली की संगीता मेहरा ने कहा कि सावन के झूले और गीत तो अब बहुत कम हो गए हैं लेकिन मैं हर साल व्रत रखती हूं, ऑफिस से लौटकर पूजा करती हूं और मोबाइल पर कथा सुनती हूं। रिठाला में रहने वाली गृहिणी लक्ष्मी तिवारी ने कहा कि मेहंदी लगाना और चूडिय़ां पहनना मेरे लिए सावन की पहचान है। सुनीता भारद्वाज ने कहा कि दिल्ली में बारिश आती है लेकिन गांव की तरह मिट्टी नहीं महकती। वहां सावन का मतलब होता था झूले, मेंहदी और गीत। अब बच्चों को वो सब नहीं दिखा पाते। हम तो कोशिश करते हैं घर में थोड़ी बहुत पूजा-पाठ कर उस माहौल को बनाए रखें ताकि बच्चे जानें तो सही कि सावन का त्यौहार क्या होता है और पारंपरिक तौर पर कैसे मनाया जाता है। गाजियाबाद के श्रीमद्भागवत प्रवचनकर्ता आचार्य ऋतुपर्ण शर्मा ने कहा कि सावन मास में भगवान शिव की अराधना की जाती है। उन्होंने कहा कि पौराणिक कथाओं के अनुसार समुद्र मंथन के समय निकले विष को शिवजी ने ग्रहण किया था, जिसके बाद देवताओं ने सावन के सोमवार को उनकी विशेष आराधना आरंभ की। सावन के सोमवार के व्रतों को सौभाग्य और मनोकामना पूर्ति के लिए किया जाता है। सावन के महीने में शिव मंदिरों में जाकर श्रद्धालु शिवलिंग पर जल, दूध और बेलपत्र चढ़ाते हैं। मंदिरों में हर सोमवार सुबह से ही भक्तों की कतारें लग जाती हैं। कई श्रद्धालु व्रत रखकर पूरे दिन भगवान शिव की आराधना करते हैं और शाम को आरती में भाग लेते हैं।

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तीज त्यौहारों पर भी पड़ रहा है मैट्रो लाइफस्टाइल का असर

 मैट्रो शहरों की बदलती लाइफस्टाइल और बिजी शेड्यूल से ट्रेडीशनल फेस्टीवल्स भी अछूते नहीं रहे हैं। सावन के महीने में विशेष रूप से की जाने वाली भगवान शिव की पूजा से जुड़ी परंपराओं पर भी इसका असर पड़ा है। सावन मास की शुरुआत हो गई है और सावन के पहले सोमवार का व्रत 14 जुलाई को रखा जाएगा। शहर की कई कामकाजी महिलाओं का मानना है कि व्यस्त जीवनशैली के कारण अब वह समय नहीं रहा जब कॉलोनियों में सावन के महीने में झूले डाले जाते थे और महिलाएं सामूहिक रूप से गीत गाती थीं। महिलाओं को इस बात की टीस रहती है कि अब न तो मोहल्लों में पेड़ों पर झूले दिखाई देते हैं और न ही पारंपरिक लोकगीतों की गूंज सुनाई देती है। हालांकि उनका कहना था कि धार्मिक भावना आज भी उतनी ही मजबूत है, लेकिन अभिव्यक्ति के तौर-तरीकों में बदलाव आ गया है। दक्षिण दिल्ली में पार्लर चला रहीं पल्लवी के अनुसार  धार्मिक रीति-रिवाज हमारी सांस्कृतिक पहचान से जुड़े हैं लेकिन समय की कमी के चलते मैं उतने विधि-विधान से पूजा नहीं कर पाती हैं, जैसा कि मेरी मां और दादी-नानी किया करती थीं। राजधानी में जहां एक ओर कामकाजी महिलाएं डिजिटल माध्यम से कथा और भजन सुनकर व्रत की परंपरा निभाती हैं, वहीं गृहिणियां सुबह से ही मंदिरों में जाकर शिवलिंग का अभिषेक करने की तैयारी करती हैं। भागदौड़ वाली जिंदगी में धार्मिक रीति-रिवाजों को सहेजना थोड़ा मुश्किल होता है । इसलिए केवल घर पर ही शिवलिंग की पूजा कर सावन का पर्व मनाती हूं। हालांकि महानगरों को छोड़ दें तो छोटे शहरों में महिलाएं अभी भी धामिर्क मान्याताओं और रीति-रिवाजों का पालन करती हैं। प्रयागराज की ‘आशा’ कार्यकर्ता रेखा के अनुसार परिवार का पेट-पालने के लिए जितना दो पैसे कमाना जरुरी है, उतना ही रीति-रिवाज, तीज त्यौहार मनाना भी जरूरी है। एक कार्पोरेट कंपनी में काम करने वाली पूर्वी दिल्ली की संगीता मेहरा ने कहा कि सावन के झूले और गीत तो अब बहुत कम हो गए हैं लेकिन मैं हर साल व्रत रखती हूं, ऑफिस से लौटकर पूजा करती हूं और मोबाइल पर कथा सुनती हूं। रिठाला में रहने वाली गृहिणी लक्ष्मी तिवारी ने कहा कि मेहंदी लगाना और चूडिय़ां पहनना मेरे लिए सावन की पहचान है। सुनीता भारद्वाज ने कहा कि दिल्ली में बारिश आती है लेकिन गांव की तरह मिट्टी नहीं महकती। वहां सावन का मतलब होता था झूले, मेंहदी और गीत। अब बच्चों को वो सब नहीं दिखा पाते। हम तो कोशिश करते हैं घर में थोड़ी बहुत पूजा-पाठ कर उस माहौल को बनाए रखें ताकि बच्चे जानें तो सही कि सावन का त्यौहार क्या होता है और पारंपरिक तौर पर कैसे मनाया जाता है। गाजियाबाद के श्रीमद्भागवत प्रवचनकर्ता आचार्य ऋतुपर्ण शर्मा ने कहा कि सावन मास में भगवान शिव की अराधना की जाती है। उन्होंने कहा कि पौराणिक कथाओं के अनुसार समुद्र मंथन के समय निकले विष को शिवजी ने ग्रहण किया था, जिसके बाद देवताओं ने सावन के सोमवार को उनकी विशेष आराधना आरंभ की। सावन के सोमवार के व्रतों को सौभाग्य और मनोकामना पूर्ति के लिए किया जाता है। सावन के महीने में शिव मंदिरों में जाकर श्रद्धालु शिवलिंग पर जल, दूध और बेलपत्र चढ़ाते हैं। मंदिरों में हर सोमवार सुबह से ही भक्तों की कतारें लग जाती हैं। कई श्रद्धालु व्रत रखकर पूरे दिन भगवान शिव की आराधना करते हैं और शाम को आरती में भाग लेते हैं।


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