अब श्रीराम ने लक्ष्मण से देवराज इन्द्र को एक पत्र लिखवाया और उस पत्र को एक बाण में बांधकर शीघ्र ही इन्द्रपुरी की ओर छोड़ दिया जो देवराज इन्द्र के समक्ष जाकर गिरा। इन्द्र ने आश्चर्य मिश्रित भय के साथ उस सुवर्ण निर्मित बाण को देखा जिसके पुच्छ भाग पर श्रीराम का नाम अंकित था। देवराज इन्द्र ने बाण के साथ बंधे पत्र को खोलकर प्रणाम कर, पढ़ा। पत्र में लिखा था- हे दन्द्र आप स्वर्गलोक में सुखपूर्वक रहें। आप से मैं एक वस्तु की याचना करता हूं, बात यह है कि अत्यंत क्रोधी तपस्वी मुनि दुर्वासा आज अपने साठ हजार शिष्यों सहित तथा अन्य श्रेष्ठ मुनियों को साथ लेकर यहां आये हैं। इन्होंने एक हजार वर्ष का उपवास रखा था और अब आज व्रत पूरा हो रहा है। उन्हें भोजना करना है। दुर्वासा मुनि ने शर्त रखी है कि वे ऐसा भोजन, जो मणि, अग्नि और कामधेनु के सहयोग से प्राप्त न हुआ हो, को ही ग्रहण करेंगे। इसके लिये उन्होंने मूहर्त भर का समय दिया है। इसके अतिरिक्त शिव पूजा के लिये मुनि ने ऐसे पुष्पों की मांग की है, जिन्हें मनुष्यों ने नहीं देखा हो। मैंने दुर्वासा मुनि की दोनों बातें स्वीकर कर ली है। वे अपने शिष्यों के साथ सरयू नदी पर स्नान करने के लिये गये हुए हैं अत: आप समुद्र से उत्पन्न कल्पवृक्ष तथा पारिजात वृक्ष को बिना विलम्ब किये शीघ्र ही क्षणभर में आदरपूर्वक मेरे पास भिजवा दें। रावण का शिरश्देहन करने वाले मेरे बाण की आप प्रतीक्षा न करें।