आज ऐसे कारोबार ढूंढने से भी मुश्किल से मिलते है जो कंपिटिशन की कभी न खत्म होने वाली कहानी का हिस्सा न हो यानि लगभग हर कारोबार किसी न किसी रूप में कंपिटिशन की लड़ाई लड़ रहा है। भले ही बाजारों को डवलप करने व इन्नोवेशन को आगे बढ़ाने के लिए कंपिटिशन को हर कोई जरूरी व अच्छा बताता हो लेकिन कंपिटिशन से जूझना और उसका सामना करना कितना चुनौतीपूर्ण होता है यह वही जानता है जो हर दिन इसके बीच में रहकर काम करता है। यह बाजार व्यवस्था की कड़वी हकीकत है कि जहां भी मोनोपोली थोड़े दिन ठहरने लगती है वहां कंपिटिशन पहुंच ही जाता है यानि मोनोपोली की स्थिति में बने रहना अब लगभग नामुमकिन सा होने लगा है। जयपुर के प्रसिद्ध एम.आई.रोड़ पर पांच बत्ती चौराहे के पास 6-8 महीने पहले ही लाखों रुपये का इंवेस्टमेंट करके किसी ने खाने-पीने का रेस्टोरेंट दो ऐसे रेस्टोरेंट के बीच खोला जो बरसों से चल रहे थे। वह नया रेस्टोरेंट अपनी जगह बनाने में कामयाब नहीं हो पाया और लाखों-करोड़ों रुपये गवाने के बाद आखिरकार उसे बंद करना ही पड़ा। ऐसे उदाहरण हर तरह के कारोबारी क्षेत्र और छोटे से लेकर बड़े शहरों में बड़ी संख्या में देखें जा सकते हैं जिनसे बदलते कारोबारी माहौल के बारे में तो पता चलता ही है पर साथ ही यह भी समझ आता है कि भविष्य का अनुमान (Prediction) लगाने की ‘इंटेलिजेंस’ अब वैसे रिजल्ट नहीं दे पा रही है जैसे पहले दे दिया करती थी। ऐसा क्यों होने लगा है इसके छुपे कारणों को खोजकर समझने के लिए जितना समय दिया जाना चाहिए वास्तव में उतना समय देने की इच्छाशक्ति से लोगों को दूर रखने के तरीके ज्यादा चलन में है जो भले ही कोई फायदा न देते हो पर उनमें मिलने वाले मस्ती-मजे के अहसास को कोई नहीं खोना चाहता। कंपिटिशन के कई रूप है। कारोबार कीमतों पर, प्रोडक्ट पर, क्वालिटी पर, प्रोडक्शन पर, डिस्ट्रीब्यूशन पर, स्कीमों पर, प्रमोशन व ब्रांडिंग जैसे कई मामलों में एक-दूसरे से भिड़ते है जहां दूसरे का मार्केट शेयर कम करना सबसे बड़ा लक्ष्य होता है पर अच्छी बात यह है कि ऐसा करते-करते कई कारोबार खुद के लिए नया मार्केट डवलप करने में भी सफल हो जाते हैं।
अभी जो आत्मनिर्भरता की नई ‘थीम’ कारोबारी सेक्टर का हिस्सा बन रही है वह कितनी सफल होगी यह तो समय बताएगा पर यही थीम कारोबारी सेक्टर को पहले से ज्यादा कंपिटिशन वाले माहौल में काम करने के लिए मजबूर जरूर कर देगी। आसान भाषा में जो कारोबार अपना मॉल देश से बाहर बेचते थे वे अब देश में ही अपनी जगह बनाने का प्रयास करेंगे जिन्हें यहां के कारोबारी फार्मूलों का पता है और जो इन्हीं फार्मूलों के आस-पास रहकर बाजारों में अपने प्रोडक्ट उतारेंगे। हमारी इकोनोमी की, लोगों के बिहेवियर की और वास्तव में खरीदने की क्षमता रखने वालों की गणित को देखने पर पता चलता है कि 140 करोड़ से ज्यादा लोगों के देश में 5 लाख रुपये सालाना या अधिक कमाने वालों की संख्या 3.35 करोड़ के करीब ही है यानि इन लोगों की जेब से पैसा निकलवाने के लिए आपस में कम्पीट कर रहे ज्यादातर कारोबारों की संख्या में हजारों कारोबार और जुड़ जाएंगे जो आत्मनिर्भरता की ‘थीम’ में अपना भविष्य सुरक्षित करने की उम्मीद लगा चुके हैं। जापान, चीन, अमेरिका सहित हमारे देश की खरीदने की क्षमता रखने वाली क्लास में Value For Money को लेकर गंभीरता डवलप होने लगी है और कंपिटिशन में उलझे कारोबारों को खुद से यह सवाल पूछना शुरू कर देना चाहिए कि वे अपने कस्टमरों को कितनी वेल्यू दे पा रहे हैं। हर देश की इकोनोमी में एक पड़ाव के बाद Value For Money के प्रति कस्टमरों की सोच डवलप होती देखी गई है। उदाहरण के लिए जापान में यह बदलाव 1990 में आया था, चीन में कुछ वर्षों पहले आया है व भारत में शायद जल्दी बड़े लेवल पर आने वाला है और यह तब आता है जब कस्टमर अपने खर्च के प्रति सचेत होना शुरू कर देता है। यह सही है कि देशभक्ति और आत्मनिर्भरता लोकल ब्रांड्स को डवलप करती है पर लम्बे समय तक टिकने के लिए Value For Money की थीम पर फोकस करना जरूरी है। Value For Money की पॉवर कंपिटिशन को सीमित कर सकती है तो प्रीमियम भी दिलवा सकती है। खर्च करने की पॉवर रखने वाले 3.35 करोड़ लोगों व उनके परिवारों के बीच जगह बनाने के लिए गहराते कंपिटिशन में कारोबारों के लिए अच्छी वेल्यू, अच्छी कहानी, अच्छी इमेज व अच्छी नीयत का रोल समय के साथ बढ़ता जाएगा, ऐसे संकेत मिलने लगे हैं।