देश के शहरी क्षेत्रों में अफोर्डेबल घरों की कमी एक गंभीर समस्या बनती जा रही है। एक नई रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में किफायती मकानों की डिमांड तो बढ़ रही है, लेकिन उन्हें बनाने की रफ्तार बहुत धीमी हो गई है, जिससे इस क्षेत्र में एक बड़ा असंतुलन पैदा हो गया है। रियल एस्टेट की कन्सल्टेंसी कंपनी नाइट फ्रैंक इंडिया और नेशनल रियल एस्टेट डवलपमेंट काउंसिल (नारेडको) की एक रिपोर्ट में बताया गया कि देश के आठ बड़े शहरों (मुंबई, दिल्ली-एनसीआर, बेंगलुरु, हैदराबाद, चेन्नई, पुणे, कोलकाता और अहमदाबाद) में हालात चिंताजनक हैं। पहले 2019 में जहां हर एक घर की डिमांड पर एक से ज्यादा घर बन रहे थे, वहीं 2025 के फस्र्ट हाफ (जून तक) में यह आंकड़ा गिरकर 0.36 रह गया है। इसका मतलब है कि डिमांड के मुकाबले सिर्फ एक-तिहाई घर ही बन रहे हैं। रिपोर्ट में बताया गया कि देश में शहरी किफायती घरों की वर्तमान कमी 94 लाख इकाई है। तेजी से बढ़ते शहरीकरण के कारण 2030 तक यह कमी बढक़र तीन करोड़ इकाई तक पहुंच सकती है। नारेडको के अध्यक्ष ने कहा कि नाइट फ्रैंक और नारेडको की रिपोर्ट से भारत में सस्ते मकानों की कमी की समस्या एक बार फिर सामने आई है। उन्होंने बताया कि वर्तमान में देश में 94 लाख मकानों की कमी है, जो 2030 तक बढक़र तीन करोड़ हो सकती है। उनके अनुसार यह चिंता की बात है कि किफायती मकानों की मांग तो बढ़ रही है, लेकिन उनकी संख्या घट रही है। इसके अलावा निजी कंपनियों का निवेश भी बहुत कम है, जिससे यह समस्या और बढ़ रही है। नाइट फ्रैंक इंडिया के चेयरमैन शिशिर बैजल ने कहा कि किफायती मकान सिर्फ एक सामाजिक जरूरत नहीं है, बल्कि एक आर्थिक आवश्यकता भी है। मांग के पक्ष में सरकारी समर्थन सराहनीय रहा है, लेकिन अब आपूर्ति की बाधाओं को दूर करना बेहद जरूरी है।