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Daily Business Newspaper | A Knowledge Powerhouse in Hindi

02-07-2025

कर्म समाप्ति के बाद भी स्वरूप नहीं बदलता

  •  सामान्यत: यह देखा गया है कि मनुष्य जिस उद्देश्य को लेकर कर्म में प्रवृत्त होता है, कर्म के समाप्त होते ही वह उसी लक्ष्य में तल्लीन हो जाता है। जैसे व्यापारी धन के उद्देश्य से व्यापार करता है, तो दुकान बंद करते ही उसका ध्यान स्वत: रुपयों की ओर जाता है तथा वह उन्हें गिनने लग जाता है। उसका ध्यान इस ओर नहीं जाता कि आज दुकान पर कौन-कौन आया था, कौन से ग्राहक थे, किस जाति-समुदाय या वर्ग के थे, किसने क्या लिया, क्या पसंद किया और क्या पसंद नहीं किया आदि आदि। लेकिन इन सब से व्यापारी को कोई मतलब नहीं होता, उसका ध्यान तो इस बात में रहता है कि आज गल्ला कितना आया। यहां एक व्यवहारिक सच यह भी है कि कोई भी कर्म निरंतर नहीं रहता, अत: किसी का कर्तापन सतत नहीं रहता बल्कि कर्म का अंत होने के बाद कर्तापन का अंत हो जाता है, पर यहां मनुष्य यह भूल जाता है कि जब कोई कार्य वह कर रहा होता है ,तो अपने आप को उस कार्य का कर्ता मानता ही है। खास बात यह कि जब वह उस कार्य को नहीं कर रहा होता, तब भी वह अपने आप को उस कार्य के कर्ता के रूप में ही परिभाषित करता है। इस प्रकार अपने आप को निरंत कर्ता मानने के कारण उसका कर्तापन यथावत कायम रहता है। एक और उदाहरण देखिये, जैसे कोई व्यक्ति कहीं व्याख्यान देने जाता है, तो जब वह बोल रहा होता है तब वह स्वाभाविक रूप से वक्ता ही होता है। पर जब वह व्याख्यान नहीं दे रहा होता है, तो तब भी वह अपने आप को वक्ता ही मानता है और उसमें वक्ता होने का अभिमान हावी रहता है। अपने आप को निरंतर वक्ता मानने से उसके मन में यह भाव आता है कि श्रोता मेरी सेवा करें, मेरा आदर करें और मेरी आवश्यकताओं की पूर्ति करें। यदि वक्ता कोई बड़ा कथा-वाचक होता है, तो उसका अहंकार स्तर ही बढ़ जाता है और सोचने लगता है कि मैं इन साधारण लोगों के बीच कैसे बैठ सकता हूं, या कोई साधारण काम कैसे कर सकता हूं। इस प्रकार वक्ता होने के कर्म से उसका निरंतर संबंध बना रहता है। व्याख्यान से वह धन और मान अर्जित करता है, उसके शब्दों-व्याख्यान आदि की बड़ाई होती है, ऐसे में उसके दिन में कुछ न कुछ पाने का भाव आ जाता है। पर होना यह चाहिये कि कर्तापन केवल कर्म करने तक सीमित रहे और कुछ पाने का भाव न रहे, कर्म समाप्त होते ही कर्तापन का अपने उद्देश्य में लीन हो जाना बेहतर रहता है। जैसे भोजन करते समय व्यक्ति अपने को उसका भोक्ता अर्थात भोजन करने वाला मानता है, पर भोजन करने के उपरांत नहीं।

    ऐसे ही कर्मयोगी किसी क्रिया को करते समय ही अपने को उस क्रिया का कर्ता मानता है, अन्य समय नहीं। ऐसा कर्मयोगी होना ही श्रेष्ठ है। मान लें एक कर्मयोगी व्याख्यान देता है, उसकी जन-समुदाय के बीच बड़ी प्रतिष्ठा भी है। ऐसे व्याख्यानदाता को यदि कहीं किसी अन्य का व्याख्यान सुनने का अवसर मिलता है, तो वह बहुत तल्लीनता से सुन लेता है। उस समय उसे न तो आदर की आवश्यकता होती है और न ही बड़े आसन की, क्योंकि तब वह खुद को श्रोता मानता है, व्याख्यानदाता नहीं। जो कर्मयोगी व्याख्यानदाता होता है वह आवश्यकता पडऩे पर अपना कमरा भी साफ कर लेता है और कपड़े भी धो लेता है। उसी तत्परता से जिस तत्परता से वह व्याख्यान देता है, उसके मन में यह भाव बिलकुल नहीं आता कि इतना बड़ा व्याख्यानदाता होने के बाद मैं कमरे की सफाई या कपड़ा धोने का काम कैसे कर सकता हूं, लोग क्या कहेंगे, मेरी इज्जत धूल में मिल जायेगी। वह अपने का व्याख्यान देते समय व्याख्यानदाता, कथा श्रवण के समय श्रोता और कमरा साफ करते समय खुद को कमरा साफ करने वाला मानता है, अत: उसका कर्तापन निरंतर नहीं रहता। जीवन में एक व्यक्ति का कर्मयोगी होना बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि ऐसा होने पर वह अपनी भूमिका बहुत स्वाभाविक तरीके से निभा सकता है। उसे अपने कर्तव्यों का भान होता है, पर वह यह नहीं देखता कि किसी अन्य ने अपना कर्म सही से किया है या नहीं। अगर हम में कर्तापन अभिमान होता है, तभी हम किसी अन्य की तरफ देखकर उसके काम का विश्लेषण करते हैं। अगर ऐसा होता है तो व्यक्ति अपने कर्तव्य से विमुख माना जाता है, क्योंकि दूसरे का कर्तव्य देखना अपना कर्तव्य नहीं है। हम अपने कर्तव्य को अच्छे से निभायें और उस पर फोकस करें तो बेहतर है। यहां झूले का उदाहरण स्वाभाविक रूप से आता है। झूला जब चलता है तो तेजी से आगे पीछे होता है, पर जहां वह बंद होता है, वहां वह सम स्थिति में आ जाता है। उस सीध में जहां से झूले की रस्सी बंधी होती है। उसी प्रकार कोई भी व्यक्ति जब कर्म करता है, तो कर्म समाप्ति के बाद वह अक्रिया अवस्था अर्थात समता की स्थिति मेें आता है। वास्तविक दृष्टि से देखा जाये तो झूला चलते हुए भी निरंतर समता में ही रहता है अर्थात झूला आगे-पीछे जाते समय भी निरंतर उस प्वाइंट पर आता है, जहां से झूले की रस्सी बंधी होती है। यहां एक व्यवसायी के लिए कर्मयोगी होने के मायने यह है कि व्यवसाय के काम के दौरान तो वह अपने व्यवसाय पर फोकस करे और उसे पूरी तन्मयता से करे। पर जैसे ही व्यवसाय के काम की अवधि समाप्त होती है दैनिक चर्या मे ंतो फिर वह समता वाली स्थिति में आ जाये, तब वह यह नहीं सोचे कि इतना बड़ा व्यापारी है। जब तक व्यापार की गद्दी पर है तब तक व्यापारी और उस गद्दी से बाहर निकलते ही एक साधारण व्यक्ति। यह सादगी जिस व्यक्ति के जीवन में होती है, वह अपने लक्ष्य को अधिक बेहतर तरीके से हासिल कर सकता है और जिसके सोच में 24 घंटे ही व्यापार सवार होगा वह एक समय आता है जबकि व्यापार से उकता जाता है और सफलता कई बार उससे दूर भाग जाती है। इसकी वजह यह है कि व्यक्ति की अपनी क्षमताएं सीमित होती हैं और इस सीमित क्षमता के दायरे में वह कारोबार में लीन रहे। बाद का समय वह खुद को, परिवार को और अपने तन का एनर्जी लेवल और  मन की सोच बढ़ाने पर केंद्रित करे, तो बेहतर रहेगा। यही जीवन का सार है।

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कर्म समाप्ति के बाद भी स्वरूप नहीं बदलता

 सामान्यत: यह देखा गया है कि मनुष्य जिस उद्देश्य को लेकर कर्म में प्रवृत्त होता है, कर्म के समाप्त होते ही वह उसी लक्ष्य में तल्लीन हो जाता है। जैसे व्यापारी धन के उद्देश्य से व्यापार करता है, तो दुकान बंद करते ही उसका ध्यान स्वत: रुपयों की ओर जाता है तथा वह उन्हें गिनने लग जाता है। उसका ध्यान इस ओर नहीं जाता कि आज दुकान पर कौन-कौन आया था, कौन से ग्राहक थे, किस जाति-समुदाय या वर्ग के थे, किसने क्या लिया, क्या पसंद किया और क्या पसंद नहीं किया आदि आदि। लेकिन इन सब से व्यापारी को कोई मतलब नहीं होता, उसका ध्यान तो इस बात में रहता है कि आज गल्ला कितना आया। यहां एक व्यवहारिक सच यह भी है कि कोई भी कर्म निरंतर नहीं रहता, अत: किसी का कर्तापन सतत नहीं रहता बल्कि कर्म का अंत होने के बाद कर्तापन का अंत हो जाता है, पर यहां मनुष्य यह भूल जाता है कि जब कोई कार्य वह कर रहा होता है ,तो अपने आप को उस कार्य का कर्ता मानता ही है। खास बात यह कि जब वह उस कार्य को नहीं कर रहा होता, तब भी वह अपने आप को उस कार्य के कर्ता के रूप में ही परिभाषित करता है। इस प्रकार अपने आप को निरंत कर्ता मानने के कारण उसका कर्तापन यथावत कायम रहता है। एक और उदाहरण देखिये, जैसे कोई व्यक्ति कहीं व्याख्यान देने जाता है, तो जब वह बोल रहा होता है तब वह स्वाभाविक रूप से वक्ता ही होता है। पर जब वह व्याख्यान नहीं दे रहा होता है, तो तब भी वह अपने आप को वक्ता ही मानता है और उसमें वक्ता होने का अभिमान हावी रहता है। अपने आप को निरंतर वक्ता मानने से उसके मन में यह भाव आता है कि श्रोता मेरी सेवा करें, मेरा आदर करें और मेरी आवश्यकताओं की पूर्ति करें। यदि वक्ता कोई बड़ा कथा-वाचक होता है, तो उसका अहंकार स्तर ही बढ़ जाता है और सोचने लगता है कि मैं इन साधारण लोगों के बीच कैसे बैठ सकता हूं, या कोई साधारण काम कैसे कर सकता हूं। इस प्रकार वक्ता होने के कर्म से उसका निरंतर संबंध बना रहता है। व्याख्यान से वह धन और मान अर्जित करता है, उसके शब्दों-व्याख्यान आदि की बड़ाई होती है, ऐसे में उसके दिन में कुछ न कुछ पाने का भाव आ जाता है। पर होना यह चाहिये कि कर्तापन केवल कर्म करने तक सीमित रहे और कुछ पाने का भाव न रहे, कर्म समाप्त होते ही कर्तापन का अपने उद्देश्य में लीन हो जाना बेहतर रहता है। जैसे भोजन करते समय व्यक्ति अपने को उसका भोक्ता अर्थात भोजन करने वाला मानता है, पर भोजन करने के उपरांत नहीं।

ऐसे ही कर्मयोगी किसी क्रिया को करते समय ही अपने को उस क्रिया का कर्ता मानता है, अन्य समय नहीं। ऐसा कर्मयोगी होना ही श्रेष्ठ है। मान लें एक कर्मयोगी व्याख्यान देता है, उसकी जन-समुदाय के बीच बड़ी प्रतिष्ठा भी है। ऐसे व्याख्यानदाता को यदि कहीं किसी अन्य का व्याख्यान सुनने का अवसर मिलता है, तो वह बहुत तल्लीनता से सुन लेता है। उस समय उसे न तो आदर की आवश्यकता होती है और न ही बड़े आसन की, क्योंकि तब वह खुद को श्रोता मानता है, व्याख्यानदाता नहीं। जो कर्मयोगी व्याख्यानदाता होता है वह आवश्यकता पडऩे पर अपना कमरा भी साफ कर लेता है और कपड़े भी धो लेता है। उसी तत्परता से जिस तत्परता से वह व्याख्यान देता है, उसके मन में यह भाव बिलकुल नहीं आता कि इतना बड़ा व्याख्यानदाता होने के बाद मैं कमरे की सफाई या कपड़ा धोने का काम कैसे कर सकता हूं, लोग क्या कहेंगे, मेरी इज्जत धूल में मिल जायेगी। वह अपने का व्याख्यान देते समय व्याख्यानदाता, कथा श्रवण के समय श्रोता और कमरा साफ करते समय खुद को कमरा साफ करने वाला मानता है, अत: उसका कर्तापन निरंतर नहीं रहता। जीवन में एक व्यक्ति का कर्मयोगी होना बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि ऐसा होने पर वह अपनी भूमिका बहुत स्वाभाविक तरीके से निभा सकता है। उसे अपने कर्तव्यों का भान होता है, पर वह यह नहीं देखता कि किसी अन्य ने अपना कर्म सही से किया है या नहीं। अगर हम में कर्तापन अभिमान होता है, तभी हम किसी अन्य की तरफ देखकर उसके काम का विश्लेषण करते हैं। अगर ऐसा होता है तो व्यक्ति अपने कर्तव्य से विमुख माना जाता है, क्योंकि दूसरे का कर्तव्य देखना अपना कर्तव्य नहीं है। हम अपने कर्तव्य को अच्छे से निभायें और उस पर फोकस करें तो बेहतर है। यहां झूले का उदाहरण स्वाभाविक रूप से आता है। झूला जब चलता है तो तेजी से आगे पीछे होता है, पर जहां वह बंद होता है, वहां वह सम स्थिति में आ जाता है। उस सीध में जहां से झूले की रस्सी बंधी होती है। उसी प्रकार कोई भी व्यक्ति जब कर्म करता है, तो कर्म समाप्ति के बाद वह अक्रिया अवस्था अर्थात समता की स्थिति मेें आता है। वास्तविक दृष्टि से देखा जाये तो झूला चलते हुए भी निरंतर समता में ही रहता है अर्थात झूला आगे-पीछे जाते समय भी निरंतर उस प्वाइंट पर आता है, जहां से झूले की रस्सी बंधी होती है। यहां एक व्यवसायी के लिए कर्मयोगी होने के मायने यह है कि व्यवसाय के काम के दौरान तो वह अपने व्यवसाय पर फोकस करे और उसे पूरी तन्मयता से करे। पर जैसे ही व्यवसाय के काम की अवधि समाप्त होती है दैनिक चर्या मे ंतो फिर वह समता वाली स्थिति में आ जाये, तब वह यह नहीं सोचे कि इतना बड़ा व्यापारी है। जब तक व्यापार की गद्दी पर है तब तक व्यापारी और उस गद्दी से बाहर निकलते ही एक साधारण व्यक्ति। यह सादगी जिस व्यक्ति के जीवन में होती है, वह अपने लक्ष्य को अधिक बेहतर तरीके से हासिल कर सकता है और जिसके सोच में 24 घंटे ही व्यापार सवार होगा वह एक समय आता है जबकि व्यापार से उकता जाता है और सफलता कई बार उससे दूर भाग जाती है। इसकी वजह यह है कि व्यक्ति की अपनी क्षमताएं सीमित होती हैं और इस सीमित क्षमता के दायरे में वह कारोबार में लीन रहे। बाद का समय वह खुद को, परिवार को और अपने तन का एनर्जी लेवल और  मन की सोच बढ़ाने पर केंद्रित करे, तो बेहतर रहेगा। यही जीवन का सार है।


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