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Daily Business Newspaper | A Knowledge Powerhouse in Hindi

17-09-2025

कितनी उचित हैं लगातार बढ़ रही आवश्यकताएं

  •  यूं तो एक कहावत है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है, पर व्यवहारिक दृष्टि से देखें तो मनुष्य को सामान्य जीवन में कितनी वस्तुओं की आवश्यकता होती है। उसका दैनिक कार्यक्रम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही होता है। भोजन व वस्त्र उसकी उतनी बड़ी आवश्यकता नहीं है, बल्कि इनकी पूर्ति तो कुछ घंटों के परिश्रम मात्र से हो जाती है, इन्हें कमाने में उसे सारी उम्र लगाने की जरूरत भी नहीं है। पर विकास की अर्थव्यवस्था के वर्तमान युग में हमारी आवश्यकताएं बढऩे लगी हैं और उनकी विस्तृत पूर्ति के प्रयत्न में हम अपनी जिंदगी का बड़ा भाग लगा देते हैं, इनमें कुछ आवश्यकताएं तो उचित होती हैं और कुछ काल्पनिक भी जिनकी पूर्ति प्राय: किसी तरह से नहीं हो पाती। पर जितना उनके लिए प्रयास होता है वे उतनी ही तीव्र होती चली जाती हैं।सामान्य जीवन में रोटी और कपड़े के बाद तीसरी महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है मकान की, जब वह मिल जाता है तो उससे बेहतर मिले यह मन होने लगता है। कपड़े मिल जाते हैं, पर फिर मन करता है कि अधिक मूल्यवान, फैशन वाले, डिजाइन युक्त हों, नये ट्रेंड वाले हों। अब युग आ गया है मोबाइल और कार का, एक दौर था जबकि केवल दो तरह की कारें होती थी, एक एंबेस्डर और दूसरी फियेट। उसके बाद मारूति का प्रवेश हुआ, तो मारूति-800 ब्रांड सबकी आवश्यकता होने लगी और अब फार्चूनर भी सामान्य लगने लगी है, अनेक ब्रांड आ गये हैं, अनेक मॉडल आ गये हैं। छोटी कार से बड़ी कार पर शिफ्टिंग का दौर चलता है। पांच लाख रुपये से कम मूल्य की कार खरीदना तो आज कर हेय समझा जाने लगा है, वह तो बच्चों की कार हो गई। अब 15-20 लाख रुपये की रेंज वाली कार पर फोकस है और आगे 25-40 लाख पर यह फोकस जायेगा, अर्थात लागत के लिहाज से कार के लिए लालसा बढ़ती जाती है। बच्चों को देख लो एक सामान्य एंड्रायड फोन 2-8 हजार रुपये के बीच आ जाता है, पर थोड़ा कमाने वाले बच्चे 12-20 हजार रुपये मूल्य वाला मॉडल ढूंढते हैं और जिन बच्चों की कमाई खुद की 30 हजार रुपये के पार हो गई, वे आईफोन तक पहुंच गये हैं और उसमें भी हर दूसरे साल नया वर्जन ले लेते हैं। यहां भोजन की चर्चा किये बिना सब कुछ अधूरा है। आजकल विवाह-शादियां देखी होंगी, एक सामान्य प्लेट वाले भोजन की शुरूआत 1200-1500 रुपये प्रति प्लेट से शुरू होती है और हाई-एंड शादियों में तो 5-8 हजार रुपये तक पहुंच रही है। पेट में जितनी जगह है, उसमें कम से काम चल सकता है, लेकिन होड़ है तो धन का अपव्यय है। चार दशक पुराने दिन याद आते हैं, जबकि शादी विवाह होते थे तो पास के किसी नोहरे में खाना बनता था। जीमणवार में लड्डू-भुजिया तथा पूरी-सब्जी पर्याप्त माने जाते थे, पांचवां व्यंजन किसी ने रख दिया तो वह रईसी कहलाता था, भले ही रायता हो या लडडू के साथ चक्की हो। आज भी हलवाई बिठाकर हजार-आठ सौ लोगों का खाना अगर बनवायें, और लडडू पूड़ी, भुजिया सब्जी बने तो 60 रुपये से अधिक की लागत प्रति व्यक्ति नहीं आती, जिसमें बनाने की लागत भी शामिल है, लेकिन घर के नजदीक किसी नोहरे में हलवाई बिठाकर बनवाने का झंझट कौन करे। कस्बाती इलाकों में भी यह सब पहले बहुत होता था, अब वहां भी कैटरिंग सर्विसेज आ गई हैं और वहां चूंकि व्यंजनों की संख्या सीमित होती है तो भी 500-800 रुपये प्रति प्लेट की लागत कैटरिंग सर्विसेज वाले लेते हैं।

    धन की लालसा का तो कहना ही क्या, जितना मिल जाये उतना कम लगता है। यश और कीर्ति सदा कम महसूस होती है, जुटाते हैं, शक्ति भर कर प्रयास करते हैं, दिन रात जुटे रहते हैं, परंतु जो मिलता है उससे संतुष्टि नहीं होती। संतोष न होने से मन में सदा एक व्यथा बनी रहती है। दरअसल बहुत प्राप्त करने की व्यथा मनुष्य की मर्यादा से बाहर चली गई है और एक तरह से क्रूर रूप उसने धारण कर लिया है। धन की लोलुपता बढ़ती जा रही है। छह और अत्याचार जितनी मात्रा में कर सकते हैं, लोग करने की कोशिश करते हैं। यह सब व्यक्तिगत स्तर पर ही नहीं हो रहा, बल्कि सामाजिक स्तर पर भी हो रहा है। हमारी सिविल सोसायटी में आरक्षण की मांग इतनी बढ़ती जा रही है कि अब वह 90 प्रतिशत तक पहुंच गई है। सिविल सोसायटी से आगे बढक़र एक देश-दूसरे देश का शोषण करने पर उतारू हो गये हैं। सक्षम राष्ट्र कमजोर देशोंं को निशाना बनाकर उनके संसाधनों को कब्जे में कर रहे हैं, बाजारों में प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है। विज्ञान और तकनीक के आविष्कारों ने ऐसी चकाचौंध पैदा कर दी है कि अब कुछ अनियंत्रित सा लगने लगा है। आत्म चिंतन करने के बाद प्रतीत होता है कि हम अपने स्थान से भटक गये हैं, आवश्यकताएं कभी पूरी होती नहीं, उन्हें जितना तृप्त करने का प्रयास किया जाता है, उतना ही वे आग में घी डालने की तरह बढ़ती जा रही है। राज करने वाला सिस्टम भी इससे वंचित नहीं है, वहां कर्ज लेकर घी पीने जैसी स्थिति आ गई है। सरकारों पर उधारी का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है, सरकारें भी जन-आकांक्षाओं को तृप्त करने के लिए निशुल्क पर निशुल्क बांटें जा रही है तथा अपने पर कर्ज का बोझ बढ़ा रही है। राजस्थान सरकार को ही देख लो, सवा सात लाख करोड़ रुपये से अधिक की उधार हो गई है और एक लाख करोड़ रुपये का खर्चा सालाना ऐसा है जो नहीं किया जाये तो भी काम चल सकता है। पर सोच नहीं रही। हम जिस युग में जी रहे हैं, वहां ये बातें सामान्य लग रही हैं, लेकिन इनसे मन अतृप्त रहता है। चाहे उद्योग-व्यापार हो या अधिकारी-कर्मचारी एक लेवल तो संतोष का बनाना ही होगा। यह लेवल नहीं है, तो तृप्ति नहीं है और तृप्ति नहीं है, तो भटकाव सदा बना रहेगा। यह भटकाव पहले मन को व्यथित करता है और फिर तन को भी चपेट में ले लेता है, क्योंकि तन का बड़ा हिस्सा तो मन से ही नियंत्रित होता है। मन की बातों का सीधा असर मस्तिष्क पर आता है और वहां से शरीर का संचालन होता है। मस्तिष्क में अतृप्ति है, तो फिर जीवन का सुख चैन कहां है। अत: संतोष का एक लेवल सभी के जीवन में होना चाहिये, आवश्यकताएं अनंत हैं। किसी ने कहा है कि सांसों की सीमा निश्चित है, इच्छाओं का अंत नहीं। जिसको कोई चाह नहीं हो, ऐसा कोई संत नहीं। तो इच्छाओं का अंत कहीं तो करना जरूरी है और अपने लिए करना भी चाहिये।

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कितनी उचित हैं लगातार बढ़ रही आवश्यकताएं

 यूं तो एक कहावत है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है, पर व्यवहारिक दृष्टि से देखें तो मनुष्य को सामान्य जीवन में कितनी वस्तुओं की आवश्यकता होती है। उसका दैनिक कार्यक्रम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही होता है। भोजन व वस्त्र उसकी उतनी बड़ी आवश्यकता नहीं है, बल्कि इनकी पूर्ति तो कुछ घंटों के परिश्रम मात्र से हो जाती है, इन्हें कमाने में उसे सारी उम्र लगाने की जरूरत भी नहीं है। पर विकास की अर्थव्यवस्था के वर्तमान युग में हमारी आवश्यकताएं बढऩे लगी हैं और उनकी विस्तृत पूर्ति के प्रयत्न में हम अपनी जिंदगी का बड़ा भाग लगा देते हैं, इनमें कुछ आवश्यकताएं तो उचित होती हैं और कुछ काल्पनिक भी जिनकी पूर्ति प्राय: किसी तरह से नहीं हो पाती। पर जितना उनके लिए प्रयास होता है वे उतनी ही तीव्र होती चली जाती हैं।सामान्य जीवन में रोटी और कपड़े के बाद तीसरी महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है मकान की, जब वह मिल जाता है तो उससे बेहतर मिले यह मन होने लगता है। कपड़े मिल जाते हैं, पर फिर मन करता है कि अधिक मूल्यवान, फैशन वाले, डिजाइन युक्त हों, नये ट्रेंड वाले हों। अब युग आ गया है मोबाइल और कार का, एक दौर था जबकि केवल दो तरह की कारें होती थी, एक एंबेस्डर और दूसरी फियेट। उसके बाद मारूति का प्रवेश हुआ, तो मारूति-800 ब्रांड सबकी आवश्यकता होने लगी और अब फार्चूनर भी सामान्य लगने लगी है, अनेक ब्रांड आ गये हैं, अनेक मॉडल आ गये हैं। छोटी कार से बड़ी कार पर शिफ्टिंग का दौर चलता है। पांच लाख रुपये से कम मूल्य की कार खरीदना तो आज कर हेय समझा जाने लगा है, वह तो बच्चों की कार हो गई। अब 15-20 लाख रुपये की रेंज वाली कार पर फोकस है और आगे 25-40 लाख पर यह फोकस जायेगा, अर्थात लागत के लिहाज से कार के लिए लालसा बढ़ती जाती है। बच्चों को देख लो एक सामान्य एंड्रायड फोन 2-8 हजार रुपये के बीच आ जाता है, पर थोड़ा कमाने वाले बच्चे 12-20 हजार रुपये मूल्य वाला मॉडल ढूंढते हैं और जिन बच्चों की कमाई खुद की 30 हजार रुपये के पार हो गई, वे आईफोन तक पहुंच गये हैं और उसमें भी हर दूसरे साल नया वर्जन ले लेते हैं। यहां भोजन की चर्चा किये बिना सब कुछ अधूरा है। आजकल विवाह-शादियां देखी होंगी, एक सामान्य प्लेट वाले भोजन की शुरूआत 1200-1500 रुपये प्रति प्लेट से शुरू होती है और हाई-एंड शादियों में तो 5-8 हजार रुपये तक पहुंच रही है। पेट में जितनी जगह है, उसमें कम से काम चल सकता है, लेकिन होड़ है तो धन का अपव्यय है। चार दशक पुराने दिन याद आते हैं, जबकि शादी विवाह होते थे तो पास के किसी नोहरे में खाना बनता था। जीमणवार में लड्डू-भुजिया तथा पूरी-सब्जी पर्याप्त माने जाते थे, पांचवां व्यंजन किसी ने रख दिया तो वह रईसी कहलाता था, भले ही रायता हो या लडडू के साथ चक्की हो। आज भी हलवाई बिठाकर हजार-आठ सौ लोगों का खाना अगर बनवायें, और लडडू पूड़ी, भुजिया सब्जी बने तो 60 रुपये से अधिक की लागत प्रति व्यक्ति नहीं आती, जिसमें बनाने की लागत भी शामिल है, लेकिन घर के नजदीक किसी नोहरे में हलवाई बिठाकर बनवाने का झंझट कौन करे। कस्बाती इलाकों में भी यह सब पहले बहुत होता था, अब वहां भी कैटरिंग सर्विसेज आ गई हैं और वहां चूंकि व्यंजनों की संख्या सीमित होती है तो भी 500-800 रुपये प्रति प्लेट की लागत कैटरिंग सर्विसेज वाले लेते हैं।

धन की लालसा का तो कहना ही क्या, जितना मिल जाये उतना कम लगता है। यश और कीर्ति सदा कम महसूस होती है, जुटाते हैं, शक्ति भर कर प्रयास करते हैं, दिन रात जुटे रहते हैं, परंतु जो मिलता है उससे संतुष्टि नहीं होती। संतोष न होने से मन में सदा एक व्यथा बनी रहती है। दरअसल बहुत प्राप्त करने की व्यथा मनुष्य की मर्यादा से बाहर चली गई है और एक तरह से क्रूर रूप उसने धारण कर लिया है। धन की लोलुपता बढ़ती जा रही है। छह और अत्याचार जितनी मात्रा में कर सकते हैं, लोग करने की कोशिश करते हैं। यह सब व्यक्तिगत स्तर पर ही नहीं हो रहा, बल्कि सामाजिक स्तर पर भी हो रहा है। हमारी सिविल सोसायटी में आरक्षण की मांग इतनी बढ़ती जा रही है कि अब वह 90 प्रतिशत तक पहुंच गई है। सिविल सोसायटी से आगे बढक़र एक देश-दूसरे देश का शोषण करने पर उतारू हो गये हैं। सक्षम राष्ट्र कमजोर देशोंं को निशाना बनाकर उनके संसाधनों को कब्जे में कर रहे हैं, बाजारों में प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है। विज्ञान और तकनीक के आविष्कारों ने ऐसी चकाचौंध पैदा कर दी है कि अब कुछ अनियंत्रित सा लगने लगा है। आत्म चिंतन करने के बाद प्रतीत होता है कि हम अपने स्थान से भटक गये हैं, आवश्यकताएं कभी पूरी होती नहीं, उन्हें जितना तृप्त करने का प्रयास किया जाता है, उतना ही वे आग में घी डालने की तरह बढ़ती जा रही है। राज करने वाला सिस्टम भी इससे वंचित नहीं है, वहां कर्ज लेकर घी पीने जैसी स्थिति आ गई है। सरकारों पर उधारी का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है, सरकारें भी जन-आकांक्षाओं को तृप्त करने के लिए निशुल्क पर निशुल्क बांटें जा रही है तथा अपने पर कर्ज का बोझ बढ़ा रही है। राजस्थान सरकार को ही देख लो, सवा सात लाख करोड़ रुपये से अधिक की उधार हो गई है और एक लाख करोड़ रुपये का खर्चा सालाना ऐसा है जो नहीं किया जाये तो भी काम चल सकता है। पर सोच नहीं रही। हम जिस युग में जी रहे हैं, वहां ये बातें सामान्य लग रही हैं, लेकिन इनसे मन अतृप्त रहता है। चाहे उद्योग-व्यापार हो या अधिकारी-कर्मचारी एक लेवल तो संतोष का बनाना ही होगा। यह लेवल नहीं है, तो तृप्ति नहीं है और तृप्ति नहीं है, तो भटकाव सदा बना रहेगा। यह भटकाव पहले मन को व्यथित करता है और फिर तन को भी चपेट में ले लेता है, क्योंकि तन का बड़ा हिस्सा तो मन से ही नियंत्रित होता है। मन की बातों का सीधा असर मस्तिष्क पर आता है और वहां से शरीर का संचालन होता है। मस्तिष्क में अतृप्ति है, तो फिर जीवन का सुख चैन कहां है। अत: संतोष का एक लेवल सभी के जीवन में होना चाहिये, आवश्यकताएं अनंत हैं। किसी ने कहा है कि सांसों की सीमा निश्चित है, इच्छाओं का अंत नहीं। जिसको कोई चाह नहीं हो, ऐसा कोई संत नहीं। तो इच्छाओं का अंत कहीं तो करना जरूरी है और अपने लिए करना भी चाहिये।


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