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Daily Business Newspaper | A Knowledge Powerhouse in Hindi

20-08-2025

जीवन सरल हो या सिद्धांतवादी

  •  हम अक्सर खुद से सवाल करते हैं कि जीवन कैसा हो, सरल या सिद्धांतवादी। दोनों के अपने अपने नफा नुकसान हैं। पर महत्वूपर्ण है कि दोनों तरह की जीवनशैली अपनाने वाले लोग कैसे होते हैं। सिद्धांतवादी लोग मौन व स्थिर अधिक नजर आते हैं, उनके नजदीक जीवन का उत्सव नहीं दिखता, जबकि जो लोग सरलतापूर्वक जीवन यापन करते हैं वे सदा आनंदमय रहते हैं। अत: फैसला व्यक्ति को खुद ही करना होता है कि वह किस तरह के जीवन को जीना चाहता है। जहां तक बात सिद्धांतों की हैं, तो वे मोटे तौर पर उधार ही मिलते हैं और दूसरों से मिलते हैं। वे हमारे अपने अनुभवों से नहीं आते, ऐसे सिद्धांतों और आदर्शों की जड़ें नहीं होती, क्योंकि वे उस समाज ने दिये हैं जहां हम पैदा होते हैं, उस धर्म ने दिये हैं जिसे हमने अपना रखा है और उन शिक्षकों ने दिये हैं, जिनके हम छात्र रहे हैं। हम इन सिद्धांतों और आदर्शवाद का अनुगमन कर सकते हैं और उन्हें खुद पर लाद सकते हैं, लेकिन तब हम मात्र अनुगामी या बोझपूर्ण हो जायेंगे, जीवंत तो नहीं हो सके। सिद्धांतों के कारण जीवन के उपद्रव कम प्रभावित करेंगे, लेकिन हमारी संवेदनशीलता क्षीण हो जायेगी अर्थात घट जायेगी। मैं यहां सिद्धांतवादियों की आलोचना नहीं कर रहा, लेकिन एक सिद्धांतवादी का क्या परिदृश्य रहता है उसकी चर्चा कर रहा हूं। सिद्धांतवादी लोगों के सामने हमेशा खामोशी रहती है, उनके आस-पास न तो जीवन का उत्सव होता है और न ही जीवन का नृत्य। उनके आस-पास प्रफुल्लता की बात तो सोच भी नहीं सकते। इसलिए कि वे अपने चारों ओर एक कवच निर्मित कर लेते हैं, एक ऐसा सुरक्षा कवच जिसके भीतर कोई प्रवेश नहीं कर सकता। उनके चरित्र की दीवार उनके सिद्धांत की दीवार सबको बाहर ही रोक देती है। व्यवहारिक दृष्टि से देखा जाये तो सिद्धांतवादी लोग कैदी अधिक प्रतीत होते हैं और वह भी खुद के हाथों के बनाये हुए। अगर कोई व्यक्ति सिद्धांतवाद अपनाता है, तो जाहिर है कि उसने यह जीवन खुद के लिए चुना है और इसके लिए वह स्वतंत्र भी है। दरअसल सिद्धांतों में दबा व्यक्तित्व ऐसा होता है जिसमें जीवन को लेकर कोई उत्सुकता नहीं होती। अगर उसे ऐसा करना ठीक लगता है, तो यह उसका चुनाव है। ऐसे व्यक्ति के लिए कोई परिवर्तन की संभावना नहीं होती और न ही उसका कोई भविष्य होता है। यहां एक सवाल उठता है और ऐसा स्वाभाविक भी है कि हम सिद्धांतों की खोज क्यों करते हैं। हमने कभी गौर से नहीं देखा कि हम सिद्धांतों को पकड़ते क्यों हैं। कारण यह है कि सिद्धांतों को पकडऩे से हम उन पर आश्रित हो जाते हैं और फिर सजग होने की जरूरत नहीं पड़ती और न ही सावचेत होने की। एक व्यक्ति अहिंसा को अपना सिद्धांत बना लेता है और उसका पालन करता है, तो यह उसकी आदत हो जाती है। इसी तरह कोई सत्य को सिद्धांत बना लेता है और उसका पालन करता है, तो यह भी उसकी आदत है। यह आदत फिर व्यक्ति को यांत्रिक तरीके से सत्य या अहिंसा का पालक बना देती है और यह उसकी आदत हो जाती है। पर यहां देखने वाली बात यह है कि एक सिद्धांत या आदत सदा बाधा देती है, रोकती है। लेकिन क्या करें समाज सिद्धांतों पर निर्भर है, इसीलिए समाज और अभिभावक बच्चों को सिद्धांतों की शिक्षा देते हैं, बच्चों में सिद्धांत के संस्कार भरे जाते हैं। ये संस्कार इतने गहरे हो जाते हैं कि बच्चे उनसे अधिक कुछ सोच नहीं पाते और उन सिद्धांतों का विरोध तो कभी नहीं करते।

    यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि सत्य तभी जीवंत है, जबकि वह सजगता से आये, सिद्धांत से नहीं। सच होने के लिए हर पल सचेत रहना होता है, सत्य वस्तुत: कोई सिद्धांत नहीं है बल्कि वह बोध से जन्मता है। इसी तरह अहिंसा कोई सिद्धांत नहीं बल्कि बोध है, अगर कोई सजग है तो वह हिंसा कर ही नहीं सकता। लेकिन सच यह है कि सजग होना कठिन है, उसके लिए अपने आप को रूपांतरित करना होगा। सिद्धांतों और नियमों के अनुसार तो जीना आसान है, क्योंकि तब हमें चिंता करने की जरूरत नहीं होती। तब सिद्धांतों से काम चल जाता है। तब जीवन पटरियों पर चलने वाली रेलगाड़ी की तरह हो जाता है, क्योंकि सिद्धांत तब रेल-पटरी तुल्य हो जाते हैं और मार्ग से भटकने का भय भी नहीं होता। इसके साथ सबसे बड़ा सच यह है कि तब हमारा कोई मार्ग नहीं होता बल्कि यांत्रिक पटरियां हैं, जिन पर हमारे जीवन की गाड़ी चलती रहती है। चलते रहो, मंजिल पर पहुंच जाओगे और सोए भी रहे तो रेलगाड़ी को तो मंजिल पर पहुंचना ही है, वह उन रास्तों पर चलती है जो स्थिर हैं अर्थात जीवंत नहीं। पर महत्वपूर्ण सच यह है कि जिंदगी रेल की तरह नहीं बल्कि नदी की तरह होती है, इसलिए कि रेल का तो निश्चित मार्ग होता है, ट्रैक होता है, वह तो उसी पर चलती है। पर जीवन का कोई बना बनाया मार्ग नहीं होता सब कुछ अनिश्चित सा होता है। जैसे-जैसे नदी बहती है, उसका मार्ग बनता जाता है, जैसे जैसे नदी आगे बढ़ती है उसका मार्ग स्वयं बनता रहता है और अंतत: जाकर वह या तो किसी नदी में या फिर सागर में मिल जाती है। जीवन भी तो ऐसा ही होना चाहिये, नदी के पूर्ववत बने हुए मार्ग नहीं होते, वह जब चाहे अपने वेग से धारा बदल सकती है, मार्ग बदल सकती है, उसका कोई नक्षा नहीं जिसका अनुगमन करना हो। जीवन में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बोधपूर्ण और सजग रहें, फिर जीवन जहां ले जाये श्रद्धा के साथ जायें। श्रद्धा ही सच्ची एनर्जी है और उसके हाथ में खुद को सौंप दो, फिर देखो नतीजा, हां खुद सावचेत रहो इतना पर्याप्त है। अगर तुम सावचेत हो तो यह जीवन भी आनंदपूर्ण हो जायेगा, नदी की यात्रा ही अपने आप में आनंद है, उसका घाटियों-चट्टानों से होकर गुजरना, पहाडिय़ों से छलांगे लगाना, अज्ञात की ओर बहना सब अपने आप में आनंद है। यह एक विकास है कि नदी सागर की ओर बढ़ रही है, कहा यह जाता है कि नदी सागर में मिलने जा रही है, जबकि सच यह है कि स्वयं सागर होने की दिशा में बढ़ रही है। यदि नदियों का पूर्व-निर्धारित मार्ग होता तो जीवंत होने का सारा सौंदर्य नष्ट हो जाता, भूल भी कम होती। आवश्यकता इस बात की है कि सिद्धांत की लकीर के फकीर न बनें, अधिक से अधिक जागरूकता बढ़ायें, अपने आप को सिद्धांत की कैद से मुक्ति दो फिर देखो जीवन क्या है।
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जीवन सरल हो या सिद्धांतवादी

 हम अक्सर खुद से सवाल करते हैं कि जीवन कैसा हो, सरल या सिद्धांतवादी। दोनों के अपने अपने नफा नुकसान हैं। पर महत्वूपर्ण है कि दोनों तरह की जीवनशैली अपनाने वाले लोग कैसे होते हैं। सिद्धांतवादी लोग मौन व स्थिर अधिक नजर आते हैं, उनके नजदीक जीवन का उत्सव नहीं दिखता, जबकि जो लोग सरलतापूर्वक जीवन यापन करते हैं वे सदा आनंदमय रहते हैं। अत: फैसला व्यक्ति को खुद ही करना होता है कि वह किस तरह के जीवन को जीना चाहता है। जहां तक बात सिद्धांतों की हैं, तो वे मोटे तौर पर उधार ही मिलते हैं और दूसरों से मिलते हैं। वे हमारे अपने अनुभवों से नहीं आते, ऐसे सिद्धांतों और आदर्शों की जड़ें नहीं होती, क्योंकि वे उस समाज ने दिये हैं जहां हम पैदा होते हैं, उस धर्म ने दिये हैं जिसे हमने अपना रखा है और उन शिक्षकों ने दिये हैं, जिनके हम छात्र रहे हैं। हम इन सिद्धांतों और आदर्शवाद का अनुगमन कर सकते हैं और उन्हें खुद पर लाद सकते हैं, लेकिन तब हम मात्र अनुगामी या बोझपूर्ण हो जायेंगे, जीवंत तो नहीं हो सके। सिद्धांतों के कारण जीवन के उपद्रव कम प्रभावित करेंगे, लेकिन हमारी संवेदनशीलता क्षीण हो जायेगी अर्थात घट जायेगी। मैं यहां सिद्धांतवादियों की आलोचना नहीं कर रहा, लेकिन एक सिद्धांतवादी का क्या परिदृश्य रहता है उसकी चर्चा कर रहा हूं। सिद्धांतवादी लोगों के सामने हमेशा खामोशी रहती है, उनके आस-पास न तो जीवन का उत्सव होता है और न ही जीवन का नृत्य। उनके आस-पास प्रफुल्लता की बात तो सोच भी नहीं सकते। इसलिए कि वे अपने चारों ओर एक कवच निर्मित कर लेते हैं, एक ऐसा सुरक्षा कवच जिसके भीतर कोई प्रवेश नहीं कर सकता। उनके चरित्र की दीवार उनके सिद्धांत की दीवार सबको बाहर ही रोक देती है। व्यवहारिक दृष्टि से देखा जाये तो सिद्धांतवादी लोग कैदी अधिक प्रतीत होते हैं और वह भी खुद के हाथों के बनाये हुए। अगर कोई व्यक्ति सिद्धांतवाद अपनाता है, तो जाहिर है कि उसने यह जीवन खुद के लिए चुना है और इसके लिए वह स्वतंत्र भी है। दरअसल सिद्धांतों में दबा व्यक्तित्व ऐसा होता है जिसमें जीवन को लेकर कोई उत्सुकता नहीं होती। अगर उसे ऐसा करना ठीक लगता है, तो यह उसका चुनाव है। ऐसे व्यक्ति के लिए कोई परिवर्तन की संभावना नहीं होती और न ही उसका कोई भविष्य होता है। यहां एक सवाल उठता है और ऐसा स्वाभाविक भी है कि हम सिद्धांतों की खोज क्यों करते हैं। हमने कभी गौर से नहीं देखा कि हम सिद्धांतों को पकड़ते क्यों हैं। कारण यह है कि सिद्धांतों को पकडऩे से हम उन पर आश्रित हो जाते हैं और फिर सजग होने की जरूरत नहीं पड़ती और न ही सावचेत होने की। एक व्यक्ति अहिंसा को अपना सिद्धांत बना लेता है और उसका पालन करता है, तो यह उसकी आदत हो जाती है। इसी तरह कोई सत्य को सिद्धांत बना लेता है और उसका पालन करता है, तो यह भी उसकी आदत है। यह आदत फिर व्यक्ति को यांत्रिक तरीके से सत्य या अहिंसा का पालक बना देती है और यह उसकी आदत हो जाती है। पर यहां देखने वाली बात यह है कि एक सिद्धांत या आदत सदा बाधा देती है, रोकती है। लेकिन क्या करें समाज सिद्धांतों पर निर्भर है, इसीलिए समाज और अभिभावक बच्चों को सिद्धांतों की शिक्षा देते हैं, बच्चों में सिद्धांत के संस्कार भरे जाते हैं। ये संस्कार इतने गहरे हो जाते हैं कि बच्चे उनसे अधिक कुछ सोच नहीं पाते और उन सिद्धांतों का विरोध तो कभी नहीं करते।

यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि सत्य तभी जीवंत है, जबकि वह सजगता से आये, सिद्धांत से नहीं। सच होने के लिए हर पल सचेत रहना होता है, सत्य वस्तुत: कोई सिद्धांत नहीं है बल्कि वह बोध से जन्मता है। इसी तरह अहिंसा कोई सिद्धांत नहीं बल्कि बोध है, अगर कोई सजग है तो वह हिंसा कर ही नहीं सकता। लेकिन सच यह है कि सजग होना कठिन है, उसके लिए अपने आप को रूपांतरित करना होगा। सिद्धांतों और नियमों के अनुसार तो जीना आसान है, क्योंकि तब हमें चिंता करने की जरूरत नहीं होती। तब सिद्धांतों से काम चल जाता है। तब जीवन पटरियों पर चलने वाली रेलगाड़ी की तरह हो जाता है, क्योंकि सिद्धांत तब रेल-पटरी तुल्य हो जाते हैं और मार्ग से भटकने का भय भी नहीं होता। इसके साथ सबसे बड़ा सच यह है कि तब हमारा कोई मार्ग नहीं होता बल्कि यांत्रिक पटरियां हैं, जिन पर हमारे जीवन की गाड़ी चलती रहती है। चलते रहो, मंजिल पर पहुंच जाओगे और सोए भी रहे तो रेलगाड़ी को तो मंजिल पर पहुंचना ही है, वह उन रास्तों पर चलती है जो स्थिर हैं अर्थात जीवंत नहीं। पर महत्वपूर्ण सच यह है कि जिंदगी रेल की तरह नहीं बल्कि नदी की तरह होती है, इसलिए कि रेल का तो निश्चित मार्ग होता है, ट्रैक होता है, वह तो उसी पर चलती है। पर जीवन का कोई बना बनाया मार्ग नहीं होता सब कुछ अनिश्चित सा होता है। जैसे-जैसे नदी बहती है, उसका मार्ग बनता जाता है, जैसे जैसे नदी आगे बढ़ती है उसका मार्ग स्वयं बनता रहता है और अंतत: जाकर वह या तो किसी नदी में या फिर सागर में मिल जाती है। जीवन भी तो ऐसा ही होना चाहिये, नदी के पूर्ववत बने हुए मार्ग नहीं होते, वह जब चाहे अपने वेग से धारा बदल सकती है, मार्ग बदल सकती है, उसका कोई नक्षा नहीं जिसका अनुगमन करना हो। जीवन में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बोधपूर्ण और सजग रहें, फिर जीवन जहां ले जाये श्रद्धा के साथ जायें। श्रद्धा ही सच्ची एनर्जी है और उसके हाथ में खुद को सौंप दो, फिर देखो नतीजा, हां खुद सावचेत रहो इतना पर्याप्त है। अगर तुम सावचेत हो तो यह जीवन भी आनंदपूर्ण हो जायेगा, नदी की यात्रा ही अपने आप में आनंद है, उसका घाटियों-चट्टानों से होकर गुजरना, पहाडिय़ों से छलांगे लगाना, अज्ञात की ओर बहना सब अपने आप में आनंद है। यह एक विकास है कि नदी सागर की ओर बढ़ रही है, कहा यह जाता है कि नदी सागर में मिलने जा रही है, जबकि सच यह है कि स्वयं सागर होने की दिशा में बढ़ रही है। यदि नदियों का पूर्व-निर्धारित मार्ग होता तो जीवंत होने का सारा सौंदर्य नष्ट हो जाता, भूल भी कम होती। आवश्यकता इस बात की है कि सिद्धांत की लकीर के फकीर न बनें, अधिक से अधिक जागरूकता बढ़ायें, अपने आप को सिद्धांत की कैद से मुक्ति दो फिर देखो जीवन क्या है।

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