मन की दृढ़ता पर ही साधना और कर्म दोनों की सफलता आधारित होती है। मन अत्यंत चंचल होता है, अत: इसे स्थिर किये बिना किसी भी प्रकार की साधना या कर्म में सफलता मुश्किल रहती है। कबीर ने भी कहा है कि मन चलायमान रहता है, पर मनुष्य को कभी इसके वश में नहीं होना चाहिये, यह साधना और कर्म की सफलता की राह में सबसे बड़ा बाधक भी बन जाता है। हम जब कोई काम कर रहे होते हैं, तो बार-बार मन भटकता है और उस काम के लिए जो निर्धारित समय होता है या जितने समय में हम वह काम कर सकते हैं, इस भटकाव के कारण वह समय व्यर्थ नष्ट होता रहता है। इससे कार्य उत्पादकता भी प्रभावित होती है। प्रकट में या देखने में यह लगता है कि व्यक्ति काम कर रहा है, पर मन भटक रहा हो तो वह इधर-उधर का कुछ देखने-करने लग जाता है। आज के युग में मोबाइल पर व्यक्ति अपनी कार्य-अवधि में समय नष्ट बहुत करता है खासकर कर्मचारी वर्ग। जो व्यक्ति मन को नियंत्रित नहीं रख पाता, उसके साथ तीन दिक्कतें रहती हैं। पहला काम की अवधि लंबी हो जाती है, दूसरे उसकी कार्य उत्पादकता कम हो जाती है और तीसरे खुद उसे ग्लानि भी होती है कि उसने समय व्यर्थ नष्ट क्यों किया। यह तो वही स्थिति हुई कि अपने हाथ में दीपक है, उसके बाद भी कुंए में गिर गये। चाहे साधना हो या कर्म दोनों के अपने लक्ष्य होते हैं, साधना के जरिये ईश्वर प्राप्ति का लक्ष्य सुनिश्चित होता है और कर्म के जरिये अपने जीवन के लक्ष्य। जब मन भटकता है, तो हम लक्ष्यों की प्राप्ति से दूर हो जाते हैं, ऐसा नहीं है कि प्राप्त नहीं कर सकते, कर सकते हैं पर मन का चलायमान होना लक्ष्य को दूर कर देता है। जितना समय हम नष्ट करते हैं हमारे लक्ष्य या टारगेट उतने ही दूर होते चले जाते हैं। यदि मन चंचल न हो तो मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्ति कर सकता है। मन चूंकि पानी से पतला, धुंए से अधिक फीका और पवन की गति से भी तेज चलने वाला होता है, हम अगर इसे वश में नहीं करते, तो समय-श्रम दोनों को व्यर्थ कर रहे होते हैं। अत: आवश्यकता इस बात की है कि मस्त हाथी के समान झूमने वाले मन पर संयम का अंकुश लगा कर अपने वश में किया जाये। कबीरदास कहते हैं कि मन के मतै न चालिये, छाडि़ जीव की बाणि। ताकू केरे सूत ज्यूं, उलटि अपूठा आणि। अर्थात् मनुष्य को मन की इच्छानुसार समय नष्ट नहीं करना चाहिये, इससे हम अपने कर्म से विमुख होते हैं। जिस तरह तकुए पर चढ़े कच्चे सूत अर्थात कपास को खींच कर उसके केंद्र स्थल पिंदिया पर चढ़ा दिया जाता है, ठीक उसी तरह मन को भी लक्ष्य की राह में बने रहना ही श्रेयस्कर है।
कबीरदास का एक दोहा और है कि चिंता चिति निबारियै, फिरि बूझिये न कोई। इंद्री पसर मिटाइये, सहज मिलैगा सोई। अर्थात् व्यर्थ की बातों में अपना ध्यान न लगायें, जब काम कर रहे हैं तो कर्म को ही पूजा मान कर उसमें लीन रहें। व्यर्थ की बातों को समाप्त कर देंगे, तो लक्ष्य जल्द हासिल हो जायेगा और अनायास ही प्राप्त हो जायेगा। कबीर ने कहा है करता था तो क्यूं रहा, अय करि क्यूं पछताय, बोवै पेड़ बबूल का आम कहां से आय। इसके मायने है कि समय को जो नष्ट करता है, उसके पास पछतावै के अलावा कुछ नहीं आता, जिस तरह बबूल बोने वाले व्यक्ति को कभी आम नहीं मिल सकता, वैसे ही अनमोल समय को खराब करने वाला अपने लक्ष्य को हासिल करने में बहुत विलंब कर देता है या कर नहीं पाता। कबीर का दर्शन जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने दोहों के जरिये हमें बहुत कुछ कहने का प्रयास किया है। मन पर यूं तो उन्होंने बहुत से दोहे लिखे हैं, यहां हमने चुनींदा दोहों का जिक्र किया है। बिजनस की सफलता के लिये आवश्यक है कि जो काम करने वाले लोग हैं वे मन को नियंत्रित कर सकने वाले हों। यह भाव उनमें स्वयं-स्फूर्त जागृत हो इसके लिए नियोक्ता को अपने स्तर पर पहल और कोशिश भी करनी चाहिये। हम देखते हैं कॉर्पोरेट जगत हो या अन्य तरह के व्यवसाय, सभी में कार्यरत कर्मचारी-अधिकारी अपने समय का सदुपयोग उतना नहीं करते जितना कि अपेक्षित होता है। समय का दुरूपयोग एक अपराधिक वृत्ति से कम नहीं होती। भले ही काम करने वाले कर्मचारी-अधिकारी खुश होते हों कि उन्होंने अपने कार्य-समय में ऐसा किया, पर वस्तुत: यह कालांतर में उन्हें अपराध बोध से अवगत अवश्य कराता है। कार्य-स्थल पर किये गये समय को नष्ट करने के प्रयास निजी जीवन में किसी न किसी रूप में सामने अवश्य आते हैं। अत: जो कर्मचारी-अधिकारी समुदाय है वह समय की कीमत को समझे और इसे नष्ट करने की बजाय अपने आप को उत्पादक बनाने में लगाये। जितना काम करेंगे, उतना लक्ष्य के करीब आते जायेंगे, हमारी कार्य-उत्पादकता बढ़ेगी और संस्थान को उससे फायदा होगा। संस्थान को यदि फायदा होता है, तो नियोक्ता उसका श्रेय अधिकारियों-कर्मचारियों को अवश्य देते हैं और यह स्थिति संस्थान के लिए प्राण वायु सरीखी होती है। एक संस्थान की सफलता वहां कार्यरत कर्मचारियों के समय प्रबंधन से होती है और समय प्रबंधन स्व-विवेक अर्थात मन की स्थिति से होता है। कर्मचारी-अधिकारी में यह स्व-विवेक कैसे जागृत हो, यह सबसे महत्वपूर्ण है और इसके लिए सबसे पहले तो कर्मचारी अधिकारी को ही दायित्व बोध होना चाहिये, दूसरे नियोक्ता की तरफ से भी इस तरह के संकेत या निर्देष सुनिश्चित होने चाहिये कि लक्ष्य तक पहले पहुंचने वालों के लिए विषेष लाभ किस तरह के सुनिश्चित हैं। इन लाभों की आकांक्षा फिर व्यक्ति के मन को एकाग्र कर गतिशील कर सकती है।