एक पिता द्वारा पूर्वजों से मिली जमीन को बेचने का बच्चों ने विरोध किया। करीब 31 साल चले इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला पिता के पक्ष में दिया है। इस संयुक्त हिंदू परिवार के तीन भाइयों में से एक भाई ने बैंगलुरु के पास स्थित पैतृक जमीन का एक हिस्सा बेच दिया। जिस पर उसके चार बच्चों ने आपत्ति जताई। बच्चों का तर्क था कि यह जमीन उनके दादा की थी इसलिए वे ...कोपार्सनर... यानी जन्म से इस संपत्ति में हकदार हैं और बिना उनकी मंजूरी के यह बेची नहीं जा सकती। हालांकि पिता का दावा था कि उन्होंने यह जमीन अपने भाई से खरीदी थी और पैतृक नहीं बल्कि स्वयं अर्जित थी। ऐसे में उसे बेचने का पूरा हक है। यह मामला 1994 में शुरू हुआ और 2025 तक अदालतों में चला। ट्रायल कोर्ट ने बच्चों के पक्ष में फैसला सुनाया, जबकि पहले अपीलीय न्यायालय ने पिता के पक्ष में। फिर हाई कोर्ट ने बच्चों के पक्ष में फैसला पलट दिया। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट का फैसला पलटते हुए कहा कि बंटवारे के बाद मिली जमीन पर्सनल संपत्ति हो जाती है जिसे कोई भी सदस्य अपनी मर्जी से बेच सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हिंदू कानून के अनुसार यदि पैतृक संपत्ति का सही तरीके से बंटवारा हो चुका हो तो हर व्यक्ति का हिस्सा उसकी स्वयं अर्जित संपत्ति माना जाएगा। फिर वह उस हिस्से को बेचने, गिफ्ट करने या वसीयत करने के लिए स्वतंत्र है। इस केस में 1986 में तीनों भाइयों ने एक रजिस्टर बंटवारा किया था। पिता ने अपने भाई से उसका हिस्सा 1989 में खरीदा और 1993 में बेच दिया। बच्चों ने दावा किया कि पिता ने जमीन खरीदने के लिए दादी द्वारा दिए गए पैसे और और पारिवारिक आमदनी का इस्तेमाल किया था, इसलिए यह संपत्ति भी पारिवारिक मानी जाएगी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए दलील खारिज कर दी कि पिता ने निजी रूप से लोन लेकर यह संपत्ति खरीदी थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कोई भी स्वयं अर्जित संपत्ति तब तक संयुक्त परिवार की संपत्ति नहीं बनती जब तक मालिक इसे स्पष्ट कागजात के जरिए पारिवारिक संपत्ति में नहीं मिला देता। इस केस में ऐसा कोई कागजात नहीं नहीं मिला।
बच्चे क्यों हारे? : सिर्फ संयुक्त परिवार का हिस्सा होने से किसी संपत्ति में जन्मसिद्ध अधिकार नहीं बनता। जब बंटवारा हो चुका होता है, तो वह जमीन प्राइवेट संपत्ति हो जाती है। इसीलिए पिता को अपनी मर्जी से संपत्ति बेचने का पूरा अधिकार था।