आज भी कई परिवारों के पास 30-40 साल पुराना फर्नीचर, कार या स्कूटर, टीवी, रेडियो, कारपेट, चूल्हा, फ्रीज, घड़ी जैसे कई आइटम मिल जाएंगे जो भले ही आज की जरूरतों से मेल नहीं खा रहे हो पर उनकी Sentimental (भावनात्मक) वेल्यू इतनी है कि उन्हें घर से हटाने के लिए मन तैयार नहीं होता। 1980-1990 के दौर में जो चीजें खरीदी जाती थी उनको खरीदते समय यह भरोसा होता था कि वे लम्बे समय तक उपयोगी बनी रहेगी और दिलचस्प बात है कि ऐसा होता भी था जिसके चलते उन चीजों से एक रिश्ता सा बन जाया करता था। ऐसी चीजों को संभालकर रखने की हर कोशिश आज भी कई घरों में की जाती है पर जहां जगह की कमी होती है वहां से उन्हें न चाहते हुए भी हटाया जाने लगा है और उनकी जगह जो नए आइटम या प्रोडक्ट खरीदे जाते हैं उनसे वैसा गहरा रिश्ता नहीं जुड़ पाता। इतना ही नहीं आजकल मिलने वाले प्रोडक्ट्स पर लम्बा चलने का भरोसा भी किसी को नहीं है और न ही इन्हें बनाने वाली कंपनियां खुद यह चाहती है कि उनके प्रोडक्ट 10-15 साल से ज्यादा चलें। प्रोडक्ट्स की लाइफ कितनी कम होती जा रही है यह टैक्नोलॉजी के दौर में मोबाइल फोन या लेपटॉप रखने वाला हर व्यक्ति जानता है जो 3-4 साल से ज्यादा बहुत कम मामलों में चल पाते हैं क्योंकि उनमें काम करने वाले सॉफ्टवेयर व अन्य चीजें लगातार अपडेट होती रहती है। आज ऑटोमोबाइल यानि कार व टू-व्हीलर पर व्यक्ति जितना निर्भर हो चुका है उतना इतिहास में पहले शायद कभी किसी चीज पर नहीं रहा। कई मामलों में स्टेटस सिम्बल और ज्यादातर मामलों में जरूरत बन चुकी कारों में लोग अपना काफी समय बिता रहे हैं जिसका एवरेज बड़े शहरों में परिवार के साथ बिताए वक्त से आगे निकलने लगा है। कारों में लगी Sunroof, डिजिटल स्क्रीन, म्यूजिक सिस्टम, वाइस कमांड और कार की स्पीड जैसे कई नए-नए फीचर लोगों को हर कीमत चुकाकर उन्हें हासिल करने के लिए तैयार कर चुके हैं जो कारों की घटती लाइफ या वह लम्बे समय तक चलाने लायक नहीं रह पाएगी, इस सच को आसानी से स्वीकारने लगे हैं।
इस स्थिति के साथ-साथ नई कारों को मेंटेन करने का खर्चा भी कम नहीं है जो पिछले 10 सालों में 30 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ गया है। यही हाल इंश्योरेंस, पेट्रोल, Depriciation आदि की कॉस्ट का है जो जेब पर भारी भले ही पड़ रही हो पर फाइनेंस की सुविधा के आगे इनकी चिंता का अहसास कम हो गया है। कारों के भी Use & Throw की तरह बनने के अहसास के पीछे सबसे बड़ा सवाल यह है कि कार कंपनियां जितनी तरह के टेक्नोलॉजी या सॉफ्टवेयर से जुड़े फीचर देने लगी है उन्हें वे कितने सालों तक अपडेट करती रहेगी? भले ही यह बताया न जा रहा हो पर कुछ ही समय में कारें भी एक तय लाइफ के साथ आने लगेगी जो उदाहरण के लिए 10 साल या 3 लाख कि.मी तक ही चल पाएगी। ऑटोमोबाइल कंपनियां कही न कही कारों को सालों तक संभालने की जिम्मेदारी से बचकर लोगों को कुछ सालों बाद नई कार खरीदने के लिए तैयार करना चाहती है जो वैसा ही है जैसे आजकल इलेक्ट्रोनिक आइटमों की तरह कई अन्य प्रोडक्ट बनाए जा रहे हैं। मॉर्डन मशीनों को मेंटेन करने व खराब होने पर ठीक करने के समय लेने वाले और थका देने वाले काम अब नए जमाने के इंजीनियर कम ही करना चाहते हैं जिनका प्रोडक्ट डवलपमेंट पर ज्यादा फोकस है। मेनटेनेंस के बढ़ते खर्चों का ट्रेंड ज्यादातर प्रोडक्ट्स को Use & Throw के कॉन्सेप्ट पर तैयार करने के लिए जमीन तैयार कर चुका है। सोसाइटी का अभिन्न अंग बन चुकी कारों व अन्य ऑटोमोबाइल व्हीकल के प्रति लोगों का नया-नया प्यार उन्हें हर तरह का महंगे से महंगा अनुभव करने का मौका दे रहा है जो शानदार भले ही हो पर यह भी दूसरे प्रोडक्ट की तरह Use & Throw के शार्ट टर्म रिश्ते पर शिफ्ट हो रहा है। इस कारण लम्बे समय तक रहने वाला भावनात्मक जुड़ाव का अहसास अन्य मशीनों के साथ अब कारों में कर पाना इतिहास बन रहा है जिसके फिर से लौटने की संभावना न के बराबर ही मानी जा सकती है और प्रोडक्ट व कंज्यूमर के रिश्ते का यही नया ‘नॉर्मल’ बनता जा रहा है।