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Daily Business Newspaper | A Knowledge Powerhouse in Hindi

06-08-2025

एक नई अवधारणा कम्यून जीवन

  •  आज हम जिस जीवनशैली में जी रहे हैं और साथ ही सामाजिक बंधनों से भी बंधे हुए हैं, उसके कितने सकारात्मक परिणाम हमें मिले और कितने नकारात्मक अब उस पर विश्लेषण या चिंतन की जरूरत नहीं, क्योंकि जो होना था वह हो गया। अब वक्त आ गया है कम्यून लाईफ  का अर्थात एक ऐसा जीवन जहां लोग न केवल साथ रहते हों बल्कि उनमें आपसी घनिष्ठता भी हो। साथ रहना एक बात है और हम वह कर भी रहे हैं। एक शहर में लाखों लोग साथ रहते हैं, हर कस्बे में हजारों लोग साथ रहते हैं और महानगरों में तो एक-एक इमारत में एक हजार या अधिक लोग व परिवार रहते हैं पर उन्हें पता ही नहीं चलता कि वे एक मकान में हैं। यह साथ होना नहीं है, क्योंकि उनके बीच धनिष्ठता नहीं है। यह सिर्फ भीड़ है समुदाय नहीं। यहां समाज की जगह कम्यून शब्द का इस्तेमाल करें तो बेहतर रहेगा। दरअसल समाज कुछ बुनियादी सिद्वांतों पर जीता है, समाज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई है परिवार। यदि परिवार वैसा ही बना रहता है जैसा कि वह है तो समाज विसर्जित नहीं हो सकता और धर्म भी विदा नहीं हो सकता, फिर हम एक विश्व व एक मानवता का निर्माण भी नहीं कर सकते। परिवार वस्तुत: अनेक बीमारियों का मूल कारण है, हालांकि यह नींव का पत्थर है जिससे राष्ट् निर्मित होता है, जातियां पैदा होती है और धार्मिक संगठन बनते हैं। पर इसके विपरीत एक सच यह है कि परिवार ने जो बंधन दिये हैं, उससे व्यक्ति का आनंद छिन गया है। परिवार की परिणती बहुत जगह हमने कानूनी विवादों में देखी है। एक पिता चला गया तो उसके पुत्र-पुत्रियों में संपदा के लिए संघर्ष होते, कानूनी लड़ाई होते देखा है। औसतन प्रतिदिन एक खबर देश के किसी न किसी अखबार में आती है कि संपदा संघर्ष में भाई ने भाई को मार दिया, पुत्र ने पिता या चाचा को मार दिया और अब तक पति-पत्नी के बीच भी संपदा के लिए संघर्ष की खबरें आ रही हैं। विचित्र स्थिति यह है कि परिवार की जो संरचना है, उसकी आधारशिला ही मिल्कियत है। पति अपनी पत्नी पर मिल्कियत जताता है और दोनों मिलकर बच्चों पर। जिस क्षण हम किसी के मालिक बने, हमने उसकी स्वतंत्रता और मनुष्यता दोनों ही छीन ली यह कहा जा सकता है। परिवार नाम की इस संस्था में प्रथम दृष्टया तो यह लगता है कि हम सुरक्षित हैं, यह बात एक हद तक तो ठीक कही जा सकती है क्योंकि परिवार में रहने या होने के बहुत से लाभ हैं। पर इसके समानांतर एक और व्यवस्था या तंत्र अगर स्वाभाविक रूप से विकसित हो रहा है तो उसे विकसित होने दिया जाना चाहिये। इस कम्यून सिस्टम का आधार है प्रेम, निष्ठा और घनिष्ठता। इसे विकसित होने का अवसर दिया जाना चाहिये। इसलिए कि बहुत बार हम परिवार में या समाज में रह कर ऐसा कर बैठते हैं कि जो अवरोधक नजर आता है व्यक्तिगत विकास में और सामुदायिक विकास में भी।

    इस समय जो ट्रेंड चल रहा है वह है बच्चों को प्रतिस्पर्धी बनाये रखने की कवायद। बच्चा अढ़ाई साल का हुआ नहीं कि उसे स्कूल भेजने की कोशिश शुरू हो जाती है। इतना ही नहीं फिर क्लास व स्कूल में फस्र्ट आने का पे्रशर उस पर बनाया जाता है, अगर नहीं हो पाता है तो प्रताडि़त किया जाता है, इससे बच्चे में हीन भावना आती है कि वह किसी लायक नहीं है। यह बाल मन के प्रति एक विध्वंसक स्थिति है, इसलिए कि बच्चे में एक स्वाभाविकता होती है, उसका बाल मन आनंद की अनुभूति लेने के लिए उत्सुक होता है, लेकिन अभिभावकों का दबाब उसकी सारी स्वाभाविकता, मन का आनंद सब छीन लेता है। उसे धन और पद के लिए लडऩे वाला बनाया जाता है, मानों जीवन युद्ध क्षेत्र हो गया हो। इस स्थिति की पूरी जिम्मेदारी अभिभावकों की ही है, वे महत्वाकांक्षा में जीये हैं और उन्होंने अपने को नष्ट किया है, अब वे अपनी पूरी विरासत बच्चों को देते चले जाते हैं, अपनी अतृप्त इच्छाएं या अधूरी महत्वाकांक्षायें। इस तरह यह बीमारी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक फैलती रहती है। हमारी जवाबदेही है कि बच्चों की अतीत से रक्षा करें, उसका एकमात्र तरीका यह है कि वे कम्यून जिंदगी जीयें। बच्चों को मौलिक रूप से स्वतंत्र हो कर जीने का असर दिया जाये। बच्चों में धार्मिक-राजनीतिक, जातिगत-समुदायवाद सरीखी सोच पैदा ही नहीं हो। ये बच्चे यदि नई रोशनी में नई चीजें देखने-समझने में कामयाब हो जाते है।, तो इससे बहुत लाभ होगा। दरअसल बच्चे अपने अभिभावकों से प्रेरित होते हैं, पिता जैसा बनने की कोशिश बेटा करता है और मां जैसा बनने की कोशिश बेटी करती है। यह वह स्थिति है, जिससे मनावैज्ञानिक समस्याएं पैदा हो जाती हैं। ऐसे में एक शुरूआत हो सकती है कि बच्चों को कम्युन शैली में रखा जाये। ऐसी व्यवस्था जहां वे आजाद रहें, खुद सोचें तय करें कि क्या करना है, जो मन में आये वह करें, कोई उन्हें परतंत्र बनाने की चेष्टा न करे, कोई उनकी अकारण मदद भी नहीं करे, उन्हें वह सब मिले जो उनके लिए जरूरी है। एक बच्चे से परिवार नामक संस्था की विदाई का आधार बनता है तो यह प्रयोग दिलचस्प हो सकता है, क्योंकि इससे सामुदायिक व्यवस्था भी प्रभावित होगी, धर्म-राजनीति आदि पर भी असर आयेगा। अभी तो प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे की धारणा के अनुसार होने के लिए बाध्य किया जाता है, उससे दुख और संताप पैदा होता है और जीवन का आनंद व उल्लास नष्ट हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह अपने जीवन का निर्धारण अपने तरीके से करे, ताकि उसकी क्षमता के पूर्ण विकास का अवसर उसे मिल सके। यह एक आदर्श स्थिति हो सकती है, जिसमें देश अधिक से अधिक प्रतिभाओं को जन्म दे सकेगा, बच्चे सतत कुछ न कुछ नया खोजेंगे, अन्वेषण करने से बुद्धि की तलवार विकसित होती है और तीक्ष्ण भी। अब तक हम धार्मिक विश्वास के सहारे जीते आये हैं, कभी खुद के सहारे जी कर देखने की कोशिश भी की जानी चाहिये। कारोबारी नजरिये से देखें तो हम विभिन्न अधिकारियों, कर्मचारियों व श्रमिकों के लिए लक्ष्य निर्धारित कर देते हैं, कारोबार है व्यापार है लक्ष्य अपनी जगह होता है, पर लक्ष्य का बोझ थोपने के बजाय यदि काम करने वाले को स्वतंत्रता दी जाये, तो वह बेहतर कार्य-निष्पादन कर सकेगा। जब उसे स्वतंत्रता का आभास होगा, तो स्वाभाविक है कि वह अपने परिवार को भी स्वतंत्रता देगा, खासकर बच्चों को। बच्चे यदि स्वतंत्र सोच व अभिव्यक्ति वाले बने तो वे सही मायने में चमत्कार कर सकते हैं। उसमें एक नया मनुष्य जन्म लेगा, जो एआई तकनीक के इस युग में उससे आगे बढक़र कोई बड़ा काम कर सकता है।

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एक नई अवधारणा कम्यून जीवन

 आज हम जिस जीवनशैली में जी रहे हैं और साथ ही सामाजिक बंधनों से भी बंधे हुए हैं, उसके कितने सकारात्मक परिणाम हमें मिले और कितने नकारात्मक अब उस पर विश्लेषण या चिंतन की जरूरत नहीं, क्योंकि जो होना था वह हो गया। अब वक्त आ गया है कम्यून लाईफ  का अर्थात एक ऐसा जीवन जहां लोग न केवल साथ रहते हों बल्कि उनमें आपसी घनिष्ठता भी हो। साथ रहना एक बात है और हम वह कर भी रहे हैं। एक शहर में लाखों लोग साथ रहते हैं, हर कस्बे में हजारों लोग साथ रहते हैं और महानगरों में तो एक-एक इमारत में एक हजार या अधिक लोग व परिवार रहते हैं पर उन्हें पता ही नहीं चलता कि वे एक मकान में हैं। यह साथ होना नहीं है, क्योंकि उनके बीच धनिष्ठता नहीं है। यह सिर्फ भीड़ है समुदाय नहीं। यहां समाज की जगह कम्यून शब्द का इस्तेमाल करें तो बेहतर रहेगा। दरअसल समाज कुछ बुनियादी सिद्वांतों पर जीता है, समाज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई है परिवार। यदि परिवार वैसा ही बना रहता है जैसा कि वह है तो समाज विसर्जित नहीं हो सकता और धर्म भी विदा नहीं हो सकता, फिर हम एक विश्व व एक मानवता का निर्माण भी नहीं कर सकते। परिवार वस्तुत: अनेक बीमारियों का मूल कारण है, हालांकि यह नींव का पत्थर है जिससे राष्ट् निर्मित होता है, जातियां पैदा होती है और धार्मिक संगठन बनते हैं। पर इसके विपरीत एक सच यह है कि परिवार ने जो बंधन दिये हैं, उससे व्यक्ति का आनंद छिन गया है। परिवार की परिणती बहुत जगह हमने कानूनी विवादों में देखी है। एक पिता चला गया तो उसके पुत्र-पुत्रियों में संपदा के लिए संघर्ष होते, कानूनी लड़ाई होते देखा है। औसतन प्रतिदिन एक खबर देश के किसी न किसी अखबार में आती है कि संपदा संघर्ष में भाई ने भाई को मार दिया, पुत्र ने पिता या चाचा को मार दिया और अब तक पति-पत्नी के बीच भी संपदा के लिए संघर्ष की खबरें आ रही हैं। विचित्र स्थिति यह है कि परिवार की जो संरचना है, उसकी आधारशिला ही मिल्कियत है। पति अपनी पत्नी पर मिल्कियत जताता है और दोनों मिलकर बच्चों पर। जिस क्षण हम किसी के मालिक बने, हमने उसकी स्वतंत्रता और मनुष्यता दोनों ही छीन ली यह कहा जा सकता है। परिवार नाम की इस संस्था में प्रथम दृष्टया तो यह लगता है कि हम सुरक्षित हैं, यह बात एक हद तक तो ठीक कही जा सकती है क्योंकि परिवार में रहने या होने के बहुत से लाभ हैं। पर इसके समानांतर एक और व्यवस्था या तंत्र अगर स्वाभाविक रूप से विकसित हो रहा है तो उसे विकसित होने दिया जाना चाहिये। इस कम्यून सिस्टम का आधार है प्रेम, निष्ठा और घनिष्ठता। इसे विकसित होने का अवसर दिया जाना चाहिये। इसलिए कि बहुत बार हम परिवार में या समाज में रह कर ऐसा कर बैठते हैं कि जो अवरोधक नजर आता है व्यक्तिगत विकास में और सामुदायिक विकास में भी।

इस समय जो ट्रेंड चल रहा है वह है बच्चों को प्रतिस्पर्धी बनाये रखने की कवायद। बच्चा अढ़ाई साल का हुआ नहीं कि उसे स्कूल भेजने की कोशिश शुरू हो जाती है। इतना ही नहीं फिर क्लास व स्कूल में फस्र्ट आने का पे्रशर उस पर बनाया जाता है, अगर नहीं हो पाता है तो प्रताडि़त किया जाता है, इससे बच्चे में हीन भावना आती है कि वह किसी लायक नहीं है। यह बाल मन के प्रति एक विध्वंसक स्थिति है, इसलिए कि बच्चे में एक स्वाभाविकता होती है, उसका बाल मन आनंद की अनुभूति लेने के लिए उत्सुक होता है, लेकिन अभिभावकों का दबाब उसकी सारी स्वाभाविकता, मन का आनंद सब छीन लेता है। उसे धन और पद के लिए लडऩे वाला बनाया जाता है, मानों जीवन युद्ध क्षेत्र हो गया हो। इस स्थिति की पूरी जिम्मेदारी अभिभावकों की ही है, वे महत्वाकांक्षा में जीये हैं और उन्होंने अपने को नष्ट किया है, अब वे अपनी पूरी विरासत बच्चों को देते चले जाते हैं, अपनी अतृप्त इच्छाएं या अधूरी महत्वाकांक्षायें। इस तरह यह बीमारी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक फैलती रहती है। हमारी जवाबदेही है कि बच्चों की अतीत से रक्षा करें, उसका एकमात्र तरीका यह है कि वे कम्यून जिंदगी जीयें। बच्चों को मौलिक रूप से स्वतंत्र हो कर जीने का असर दिया जाये। बच्चों में धार्मिक-राजनीतिक, जातिगत-समुदायवाद सरीखी सोच पैदा ही नहीं हो। ये बच्चे यदि नई रोशनी में नई चीजें देखने-समझने में कामयाब हो जाते है।, तो इससे बहुत लाभ होगा। दरअसल बच्चे अपने अभिभावकों से प्रेरित होते हैं, पिता जैसा बनने की कोशिश बेटा करता है और मां जैसा बनने की कोशिश बेटी करती है। यह वह स्थिति है, जिससे मनावैज्ञानिक समस्याएं पैदा हो जाती हैं। ऐसे में एक शुरूआत हो सकती है कि बच्चों को कम्युन शैली में रखा जाये। ऐसी व्यवस्था जहां वे आजाद रहें, खुद सोचें तय करें कि क्या करना है, जो मन में आये वह करें, कोई उन्हें परतंत्र बनाने की चेष्टा न करे, कोई उनकी अकारण मदद भी नहीं करे, उन्हें वह सब मिले जो उनके लिए जरूरी है। एक बच्चे से परिवार नामक संस्था की विदाई का आधार बनता है तो यह प्रयोग दिलचस्प हो सकता है, क्योंकि इससे सामुदायिक व्यवस्था भी प्रभावित होगी, धर्म-राजनीति आदि पर भी असर आयेगा। अभी तो प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे की धारणा के अनुसार होने के लिए बाध्य किया जाता है, उससे दुख और संताप पैदा होता है और जीवन का आनंद व उल्लास नष्ट हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह अपने जीवन का निर्धारण अपने तरीके से करे, ताकि उसकी क्षमता के पूर्ण विकास का अवसर उसे मिल सके। यह एक आदर्श स्थिति हो सकती है, जिसमें देश अधिक से अधिक प्रतिभाओं को जन्म दे सकेगा, बच्चे सतत कुछ न कुछ नया खोजेंगे, अन्वेषण करने से बुद्धि की तलवार विकसित होती है और तीक्ष्ण भी। अब तक हम धार्मिक विश्वास के सहारे जीते आये हैं, कभी खुद के सहारे जी कर देखने की कोशिश भी की जानी चाहिये। कारोबारी नजरिये से देखें तो हम विभिन्न अधिकारियों, कर्मचारियों व श्रमिकों के लिए लक्ष्य निर्धारित कर देते हैं, कारोबार है व्यापार है लक्ष्य अपनी जगह होता है, पर लक्ष्य का बोझ थोपने के बजाय यदि काम करने वाले को स्वतंत्रता दी जाये, तो वह बेहतर कार्य-निष्पादन कर सकेगा। जब उसे स्वतंत्रता का आभास होगा, तो स्वाभाविक है कि वह अपने परिवार को भी स्वतंत्रता देगा, खासकर बच्चों को। बच्चे यदि स्वतंत्र सोच व अभिव्यक्ति वाले बने तो वे सही मायने में चमत्कार कर सकते हैं। उसमें एक नया मनुष्य जन्म लेगा, जो एआई तकनीक के इस युग में उससे आगे बढक़र कोई बड़ा काम कर सकता है।


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