रेगिस्तान की विरासत ऊंट अब सिर्फ परंपरा नहीं, बल्कि तेजी से उभरता हुआ बिजनेस मॉडल बन चुका है। यह बड़ा खुलासा हुआ बीकानेर स्थित राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र, बीकानेर (एनआरसीसी) की टीम द्वारा प्रतापगढ़ के ग्राम शकरकंद और चित्तौडग़ढ़ के बड़ी सादड़ी में आयोजित उष्ट्र नस्ल संरक्षण शिविर के दौरान। इस शिविर की सबसे बड़ी विशेष बात यह रही कि वैज्ञानिकों ने पहली बार ग्रामीणों के सामने यह बताया कि ऊंटनी का दूध अब रेवेन्यू कैमल मॉडल का आधार बन रहा है क्योंकि इसकी मार्केट में मांग पिछले कुछ वर्षों में 10 गुना तक बढ़ गई है। केंद्र के निदेशक डॉ. अनिल कुमार पूनिया ने इस शिविर को ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए बेहद महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि ऊंट सिर्फ राजस्थान की पहचान नहीं, बल्कि आने वाले वर्षों में ‘हाई-वैल्यू लाइवस्टॉक’ बनने जा रहा है। हमारी कोशिश यह है कि परंपरागत पशुपालक विज्ञान से जुड़े ताकि ऊंटनी के दूध से लेकर ब्रीड कंज़र्वेशन तक हर स्तर पर उन्हें सीधा आर्थिक लाभ मिले। वैज्ञानिक पशुपालन अपनाने वाले परिवार आने वाले समय में सबसे तेज़ आय वृद्धि दर्ज करेंगे। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बदलने वाला दूध : एनआरसीसी के वैज्ञानिक डॉ. सागर अशोक खुलापे ने बताया कि ऊंटनी का दूध सिर्फ पोषक तत्वों से भरपूर नहीं है, बल्कि मधुमेह, ऑटोइम्यून, गट-हेल्थ, एलर्जी जैसी समस्याओं में भी विश्व स्तर पर उपयोग किया जा रहा है। यही कारण है कि शहरी बाजारों में इसकी कीमत गाय के दूध से 4 से 6 गुना अधिक मिल रही है। एनआरसीसी के वैज्ञानिकों ने बताया कि ऊंटनी के दूध का प्री-ऑर्डर मॉडल भी तेजी से लोकप्रिय हो रहा है। यदि पशुपालक अब भी जीरो इनपुट मॉडल पर टिके रहे तो कमाई सीमित रहेगी, लेकिन यदि वे वैज्ञानिक खुराक, संतुलित पोषण, ऊष्मा-तनाव प्रबंधन और उचित स्वास्थ्य-प्रबंधन अपनाएं तो उनकी सालाना आय 2 से 3 गुना तक बढ़ सकती है। वैज्ञानिक डॉ. विश्वरंजन उपाध्याय ने बताया कि सही प्रबंधन अपनाया जाए तो ऊंट प्रतिकूल मौसम में भी लगातार उत्पादन देता है। वैज्ञानिकों का दावा है कि आने वाले समय में राजस्थान के कई जिलों में ऊंट-आधारित मिनी डेयरी मॉडल स्थापित हो सकते हैं और इसकी नींव ऐसे शिविरों से ही पड़ेगी। ग्राम शकरकंद के सरपंच शंकर ने कहा कि उन्हें पहली बार पता चला कि ऊंटनी के दूध की शहरों में इतनी बड़ी मांग है।