आज जिक्र रामचरित मानस से, गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं संकर सहज सरूप सम्हारा, लागि समाधि अखंड अपारा अर्थात शिव की समाधि सहज है, उनका बैठना भी सहज है, उनका एकांत भी सहज है और शिव की पूरी गंगधारा भी सहज है। हम उसी प्रवाह के हैं, इसलिए यदि हम सहज होना सीख लें तो जीवन के मर्म को आत्मसात कर सकते हैं। जीवन को सिद्धांत के बजाय स्वाभाविक दृष्टि से जीयें तो आनंद बढ़ जाता है, क्योंकि सिद्धांत बांध देता है जबकि स्वभाव अपना होता है। चूंकि राम शिव के उपासक हैं अत: वे भी सहज हैं, सहज उठते हैं, सहज बोलते हैं, सहज मिलते हैं, सहज जागते हैं और सहज मुस्कुराते हैं। सहजता ही श्रेष्ठ जीवनशैली है। सहजता के मायने है स्वधर्म। बात राम की सहजता की कर रहे हैं, राम ने कपटी मारीच के साथ सहज व्यवहार किया, कायर रहे सुग्रीव के साथ सहज बर्ताव किया, उसे किश्किंधा का मालिक बना दिया, शबरी के साथ बड़ी सहजता दिखाई। एक बात है कि राम अहिल्या का उद्धार नहीं करते, राम यदि केवट के अटपटे वचन का अच्छा अर्थ निकाल कर उनके साथ बात नहीं करते, राम शबरी को अपना कर जगत में स्थापित न करते, तो क्या कोई उन्हें राम कहता। दीक्षित दनकौरी का एक शेर है या तो कबूल कर मेरी कमजोरियों के साथ, या छोड़ दे मुझे मेरी तन्हाईयों के साथ। लाजिम नहीं कि हर कोई हो कामयाब ही, जीना भी सीख लीजिये नाकामियों के साथ। अर्थात् कभी विफलता भी मिले, तो उसे सहजता से लीजिये। बहुत से युवा परीक्षा में पास नहीं होने पर असहज हो जाते हैं, यह ठीक नहीं है, क्योंकि इससे जीवन ठीक नहीं चलता। सहज रहो और सहज रहने दो। स्वभाव को तो परमात्मा भी नहीं बदल सकते, कभी बदल सकता तो कालीनाग को अमृतमय कर सकता था, लेकिन नहीं कर पाया। तो सच यह है कि सहजता स्वधर्म है, हम जैसे हैं वैसा खुद को स्वीकार करें। जब हम ईश्वर की आराधना करते हैं, तो कहते हैं कि मैं मूरख अज्ञानी, कृपा करो भर्ता। अर्थात हम जैसे हैं, वैसा ही ईश्वर के निमित्त खुद को समर्पित करते हैं। जब ईश्वर के सामने हम अपना सच कह देते हैं, तो व्यवहारिक जीवन में सहजता क्यों नहीं ला पाते। सबसे महत्वपूर्ण बात या सूत्र है वह है जो पल हमारे हाथ में है, वह सहज हो। एक फिल्मी गीत याद आता है आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू, जो भी बस यही एक पल है। तो जो क्षण या पल हमारे पास है, उसमें जीवन की स्वाभाविक धारा का नाम है स्वभाव। पानी का स्वभाव देखिये, सहज होता है और इसके पीछे का वैज्ञानिक सिद्धांत है सम स्तर पर रहना, लेकिन पानी का स्वभाव सहजता से बहना है। नदी के लिए सामान्यत: कहा जाता है कि उसको इसलिए दौडऩा है ताकि वह जाकर सागर से मिले। पर वस्तुत: ऐसा नहीं है, सच यह है कि सागर मिले न मिले इससे नदी का कोई ताल्लुक नहीं है बल्कि उसका स्वभाव है बहना। जो बहता है उसका स्पर्श भी तीर्थ हो जाता है, अधिकतर तीर्थ नदियों के किनारे हैं। चाहे गंगा हो यमुना हो, गोदावरी हो। किसी कवि ने लिखा भी है कि चलते रहना ही जीवन है, बढ़ते रहना ही जीवन है, सुनो ये गंगा क्या कहती है बहते रहना ही जीवन है। तुलसीदास जी एक बात और लिखते हैं ईश्वर अंस जीव अबिनासी, चेतन अमल सहज सुखरासी। अर्थात ईश्वर तो सहज है, लेकिन ईश्वर ने जिस मनुष्य को बनाया उनमें अधिकतर सहज नहीं हैं, इसलिए कि असहज बर्ताव, असहज विचार, असहज वाणी, असहज व्यवहार, असहज खाना-पीना ये सब अस्वस्थ चित्त के परिचायक हैं। अत: जीवन में सफलता की राह यदि पानी है, तो सबसे पहले असहज वृत्ति से मुक्ति पानी होगी। कृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था, लेकिन साथ में यह भी कहा था कि यथेच्छिस तथा कुरू अर्थात जो मुझे लगा तुझे बता दिया और तुझे तेरी सहजता के अनुसार जो अच्छा लगे वह कर। मेरा कोई दबाव नहीं। वास्तविक जीवन में हम जैसे हैं, उसी धारा में रहना सीख लेंगे तो हर अवस्था में मन प्रफुल्लित रहेगा। जिस समय जो सहज कुदरत का वरदान हो, उसी में खुश रहो। इसके लिए पूजा-पाठ या विधि विधान की जरूरत नहीं है, सहज धारा अपने आप में अनमोल है।