वर्ष 2015 के बाद यानि पिछले दस सालों में जिस तरह नए-नए कारोबारी आइडिया बाजार में अपनी जगह बनाने की कोशिशे कर रहे हैं वह किसी चमत्कार से कम इसलिए नहीं है क्योंकि ऐसे कारोबार को हर कीमत चुकाकर सफल बनाने के लिए बैंकों से अलग जितने लोगों या फंडों ने अपनी तिजोरियां खोली है उतनी इतिहास में कभी किसी कारोबारी व्यवस्था में नहीं देखी गई। क्या इतनी बड़ी संख्या में कारोबारी आइडियाज का जन्म पहले कभी नहीं हुआ? क्या हर नए कारोबारी या स्टार्टअप को अपने आइडिया के सफल होने का इतना भरोसा पहले कभी नहीं रहा? क्या इंवेस्टरों के पास रखे कैश को काम पर लगाने के मौके बिल्कुल खत्म हो गए थे जिसके चलते इन्होंने नए कारोबारी आइडिया पर दांव लगाए? क्या कंज्यूमर वास्तव में नए कारोबारी आइडिया से जन्में प्रोडक्ट व सर्विस को पूरी कीमत चुकाकर लगातार लेते रहने के लिए तैयार हो चुका? ऐसे कई बेसिक सवाल है जो स्टार्टअप की दुनिया में काम करने वालों से पूछे जाने चाहिए ताकि पता चल सके कि उनका विजन वाकई में बिकने लायक है या नहीं। Common Sense के अनुसार Capitalism (पूंजीवाद) को नए जमाने के कारोबारों ने बिना सोचे समझे (For Granted) सिर्फ फायदा देने वाली व्यवस्था मानने की बड़ी गलती कर दी है। ऐसे ज्यादातर कारोबारों को लगता है कि वे जो चाहे वह कंज्यूमर को बेच सकते हैं क्योंकि कंज्यूमर की खरीदने की क्षमता असीमित हो चुकी है जबकि ऐसा नहीं है। इन कारोबारों को यह भी भरोसा न जाने कैसे होता है कि वे जो भी प्रोडक्ट या सर्विस बनाएंगे वह इतनी अच्छी होगी कि अपने आप बिकने लगेगी। हमारे चारों ओर इतनी तरह के कारोबारी आइडिया अपनी किस्मत आजमा रहे हैं जिनमें यह पता ही नहीं लगाया जा सकता कि कौन वास्तव में सफलता की कैटेगरी में पहुंच चुका है यानि वह Cost+Profit= Selling Price के कारोबारी फार्मूले के अनुसार अपना काम कर रहा है या नहीं।
कारोबारी व्यवस्था में जिन्हे नया चेम्पियन माना जाने लगा है वे सबसे पहले तो अच्छा दिखते है, ब्रांडेड कपड़े पहनते है, यंग है, सोशल मीडिया पर छाए रहते हैं और उन्हें देखकर लगता ही नहीं कि वे अपने कारोबारी आइडिया को सफल बनाने के दबाव में है क्योंकि उनकी यह मेहनत उनके दिमाग में चलती है न कि कंज्यूमर के बीच जाकर बाजार में। उनकी स्ड्डद्यद्गह्य की स्ट्रेटेजी डिस्काउंट, कूपन, सेल, टेक्नोलॉजी, स्कीम व ऑफर्स के ईर्द-गिर्द घूमती है जिनका अंत आज नहीं तो कल होना तय है क्योंकि कंजयूमर को इन सभी के दम पर बेचते रहने की भी एक सीमा है जिसका अहसास इन कारोबारों में इंवेस्ट करने वाले भी इन्हे कराने लगे हैं। बाजारों के बारे में यह समझना जरूरी है कि यहां निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र दो लोगों का अपनी इच्छा से व फायदे के लिए किया गया लेन-देन ही लम्बे समय तक टिक सकता है। बाजार की व्यवस्था में बने रहने वाले ज्यादातर कारोबारी बिना शोर मचाए चुपचाप अपना काम करते हैं जिनका फोकस सिर्फ अपने कस्टमरों की जरूरतों को लगातार पूरा करने पर ही रहता है। बाजार की ताकतों को सम्मान देकर उनके अनुसार व्यवहार करने वाले बाजारों को चैलेंज करने वालों से ज्यादा सफल होते आए हैं क्योंकि बाजारों को जीतने की संभावना बहुत ही कम रहती है। अपने प्रोडक्ट या सर्विस से कस्टमर को कुछ न कुछ वेल्यू देना बाजारों में बने रहने के लिए जरूरी है क्योंकि पैसों के दम पर एक-दूसरे के मार्केट शेयर की छीना-छपटी को बाजार ज्यादा दिन चलने नहीं देते। पूंजीवाद (Capitalism) की व्यवस्था डिमांड से ज्यादा सप्लाई का दौर तो डवलप कर ही चुकी है जिसमें नए कारोबारों के लिए अपनी जगह बनाना एक लम्बी व थका देने वाली लड़ाई से कम नहीं है जिसके कई उदाहरण अभी से ही सामने आने लगे हैं। बाजार व्यवस्था की खूबियों को गिनाने में मीडिया, सरकारें, पढ़े-लिखे इंटेलिजेंट लोग और एक्सपर्टों की कोई कमी नहीं है पर इसकी क्रूरता को बताने वालों की वाकई में कमी है तभी तो हर नया कारोबारी आइडिया तुरंत छा जाने के कांफिडेंस के साथ बाजारों में उतरता तो है लेकिन कुछ ही समय बाद उनमें से ज्यादातर का सामना बाजारों की क्रूरता से होने लगता है जिससे जूझते हुए गिनती के आइडिया ही आगे बढ़ पाते है। इस पर ध्यान देने वालों की भी उतनी ही जरूरत है जितनी कारोबारी दाव लगाने के लिए उकसाने वालों की पर ऐसा नहीं होने का मतलब साफ है कि हमारी एज्यूकेशन व कारोबारी असलियत में जमीन-आसमान का फर्क है जिसके चलते बड़ी संख्या में लोग गलतफहमी का शिकार होकर परिवार की जमा पूंजी, अपना समय व अपनी काबिलियत सहित बहुत कुछ दांव पर लगाकर खोने को मजबूर होते जा रहे हैं।