अगर हम देश-दुनिया में पिछले कुछ सालों से हो रही घटनाओं को देखें तो बाकी सभी स्थितियों में से जो एक भयावह स्थिति सामने आ रही है वह यह है कि चाहे देश हो, कारोबार हो, सरकारे हो या लीडरशिप की पोजीशन में बैठे लोग हो लगभग सभी का खुद का जहां है वहां बने रहने में भरोसा दिनों-दिन कम होता जा रहा है। अगर हम फ्री मार्केट यानि बाजारों के खुलेपन पर भी नजर डाले तो पायेंगे कि पिछले 50 सालों में व्यक्ति, ट्रेड व कैपिटल (पूंजी) का कही भी आना-जाना आसान बनाया है व जिसकी स्पीड दिनों-दिन बढ़ती जा रही है तो यह कहा जा सकता है कि इसके निगेटिव परिणामों को हम अब सामने आते देख रहे हैं। यही नहीं Climate Change, AI (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस), न्यूक्लियर वार व कोविड संकट जैसी घटनाएं इन चुनौतियों के सामने दिखने वाले संकेत है जिनके अलावा कारोबारों से जुड़ी emotionally(अस्थिरता) व अनिश्चितता तो अब हर दिन हैरान-परेशान करने वाली बन चुकी है। जिस तरह हर सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी तरह हर व्यवस्था दो स्थितियां अपने साथ लेकर चलती है और दोनों स्थितियों का सामना कभी न कभी करना ही पड़ता है। पूरी दुनिया में लोगों ने जो ग्रोथ का मजा पिछले सालों में लूटा है उन्ही लोगों के लिए अब जोखिम व अनिश्चितता जीवनसाथी की तरह साथ में चलने लगे हैं जिनसे पीछा छुड़ाने की कोई तरकीब मुश्किल से काम कर पा रही है। आजकल लगभग हर किसी को सोशल मीडिया यह फीलिंग देने में कामयाब हो गया है कि दूसरों के मुकाबले वह महत्वपूर्ण नहीं है या वह पीछे छूटता जा रहा है। लोगों में बढ़ता अकेलापन यह चिंता बढ़ा रहा है कि उनके होने या न होने का अर्थ क्या है यानि उनका अस्तित्व आखिर उन्हे क्या दे रहा है। लोगों का आपस में कम होता भरोसा उनमें ष्टशठ्ठद्घह्वह्यद्बशठ्ठ व असुरक्षा की फीलिंग को बढ़ा रहा है जिससे फोकस रखने में परेशानी होती है। कुल मिलाकर ये सभी स्थितियंा आज की जेनरेशन के साथ-साथ पिछली जेनरेशन को भी emotionally (भावनात्मक) कमजोर बना रही है यानि उनकी किसी में ध्यान व लगाव की भावना कम होती जा रही है। इन संकेतों को समझकर कई जगह ऐसे प्रयोग होने लगे हैं जो लोगों को पुराने जमाने में ले जाते हुए ऐसी फीलिंग्स से दूर कर सके। अमेरिका में कई लोग सोशल मीडिया छोडक़र दादी-नानी द्वारा सुनाई जाने वाली कहानियों की ओर लौट रहे हैं तो कई स्वेटर बुनने, पुराने खेल खेलने व लोगों से बातें करने में अपना टाइम देने की कोशिशे कर रहे हैं। सरकारों पर जनता की खुशहाली का भार होता है जिसका हम अच्छी इनकम, बेहतर सुविधाएं व अच्छी लाइफस्टाइल के रूप में आंकलन करते हैं पर इन सभी के बावजूद सरकारों की पॉलिसियां जो लोगों के सामने डर, असुरक्षा व अनश्चितता जैसी चुनौतियां खड़ी कर देती है उनपर किसी का ध्यान नहीं जाता। सरकारें भले ही ऐसे निर्णय व पॉलिसियां शॉर्ट-टर्म में लोगों की खुशहाली को ध्यान में रखकर लागू करती है पर लांग-टर्म में कहीं न कहीं इनके कारण लोगों को पर्सनल लेवल पर अपनी मेंटल हैल्थ व इमोशनल कमजोरी से जूझना पड़ता है जिसका पहले अनुमान लगाना मुश्किल है या नहीं यह सरकारों में बैठे नेता व अफसर और इंटेलिजेंट लोग ज्यादा अच्छी तरह बता सकते हैं। सच तो यह है कि व्यवस्था से अलग होना नामुमकिन है और व्यवस्था या सिस्टम चाहे जैसा भी हो वह हमारे अंदर की समस्याओं को हल नहीं कर सकता। किसी स्थिति का क्या अर्थ है और क्या मतलब है इसपर हमें ही ध्यान देते हुए उन स्थितियों को मैनेज करना सीखना होगा। यह आसान बिल्कुल नहीं है पर आगे बढऩे के लिए अपनी खुद की Common Sense समझ व चुनने की फ्रीडम को गिरवी रखने या दूसरों के हाथों में सौपने से लाइफ की रिस्क व अनिश्चितताएं कम होने की बजाए बढ़ती जाएगी इसमें कोई दोराय नहीं है और जहां है वहां बने रहने की बढ़ती चुनौतियों के पीछे शायद यही सबसे बड़ा कारण कहा जा सकता है।