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17-06-2025

दाल कर देगी ‘मालामाल’

  •  भरोसा नहीं होता लेकिन वित्त वर्ष 25 में भारत ने 5.4 बिलियन डॉलर कहें तो करीब 50 हजार करोड़ रुपये की दाल-दलहन इंपोर्ट की थी। इससे पहले के साल वित्तवर्ष 24 में दाल का इंपोर्ट केवल 3.7 बिलियन डॉलर (करीब 31 हजार करोड़ रुपये) ही था। साथ में लगी टेबल देखने से पता चलता है कि एक ओर भारत में दाल की उपज बढ़ नहीं पा रही है दूसरी ओर डिमांड-सप्लाई गैप को भरने के लिए इंपोर्ट लगातार बढ़ रहा है। भारत सरकार की चिंता यह है कि एक ओर वह किसानों की आय बढ़ाने के लिहाज से जूझ रही है दूसरी ओर दलहन जैसी हाई डिमांड और हाई वैल्यू कमोडिटी के इंपोर्ट पर मोटा खर्च करना पड़ रहा है।

    फॉर्मूला क्या
    भारत सरकार दालों में आत्मनिर्भरता मिशन के तहत 10 वर्ष में डिमांड-सप्लाई गैप को भरना चाहती है। इसके लिए दालों को एमएसपी फॉर्मूला के बजाय अरहर, उड़द, चना और मसूर जैसी प्रमुख दालों के लिए एमएसपी को डिमांड, सप्लाई और प्रॉडक्शन पैटर्न के साथ लिंक करने पर विचार कर रही है। एमएसपी में दरअसल केवल प्रॉडक्शन कॉस्ट को ही शामिल किया जाता है। जब एमएसपी लागत के बराबर या उससे कम हो जाता है तो किसान अरहर उपजाने से पीछे हट जाते हैं जिससे इंपोर्ट का दबाव बढ़ जाता है। इस मिशन के तहत सरकार का सबसे ज्यादा फोकस अरहर पर है। शॉर्ट सप्लाई होने पर अफ्रीकी देशों और म्यांमार से इंपोर्ट करनी पड़ जाती है। दाल उत्पादन में आत्मनिर्भरता मिशन के लिए सरकार अरहर, उड़द और मसूर पर विशेष फोकस करना चाहती है। इसके लिए 1 हजार करोड़ रुपये का बजटीय आवंटन कर 6 साल के लिए एक स्ट्रेटेजी बनाई गई है। वित्त वर्ष 2025-26 के लिए अरहर का एमएसपी 8000 प्रति क्विंटल रखा गया है, जबकि मूंग का एमएसपी 8868 है। मूंग 60-70 दिन की फसल है और साल में तीन बार उगाई जा सकती है, जबकि अरहर 120-160 दिन में तैयार होती है और साल में एक बार ही बोई जाती है। अरहर की मांग भी मूंग से ज्यादा है। अरहर का चैलेंज: महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों में अरहर की खपत बहुत ज्यादा है, जबकि मूंग की खपत राजस्थान और दक्षिण भारत में सीमित है। अरहर का उत्पादन वित्त वर्ष 21 में 43 लाख टन था जो घटकर वित्त वर्ष 25 में 35 लाख टन टन रह गया है। चिंता यह भी है कि इस दौरान अरहर की उत्पादकता 914 किलो प्रति हेक्टेयर से घटकर 823 किलो प्रति हेक्टेयर रह गई। इसके उलट मूंग का उत्पादन 30 लाख टन से बढक़र 38 लाख टन हो गया और उत्पादकता 601 से बढक़र 685 किलो प्रति हेक्टेयर हो गई है। वित्त वर्ष 23 में अरहर की खपत 46 लाख टन थी जबकि मूंग की 35 लाख टन। इस स्कीम के तहत विशेष रूप से अरहर के लिए 20 लाख हेक्टेयर उपजाऊ भूमि की पहचान की गई है। सरकार पांच साल की योजना के तहत सिंचाई और किसानों की ट्रेनिंग पर निवेश भी करेगी। एनेलिस्ट कहते हैं कि जितना दालों के इंपोर्ट पर खर्च किया जा रहा है उसका 25 परसेंट भी किसानों को इंसेंटिव मिल जाए तो किसानों की आमदनी बढ़ सकती है और विदेशी मुद्रा की बचत हो सकती है।

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दाल कर देगी ‘मालामाल’

 भरोसा नहीं होता लेकिन वित्त वर्ष 25 में भारत ने 5.4 बिलियन डॉलर कहें तो करीब 50 हजार करोड़ रुपये की दाल-दलहन इंपोर्ट की थी। इससे पहले के साल वित्तवर्ष 24 में दाल का इंपोर्ट केवल 3.7 बिलियन डॉलर (करीब 31 हजार करोड़ रुपये) ही था। साथ में लगी टेबल देखने से पता चलता है कि एक ओर भारत में दाल की उपज बढ़ नहीं पा रही है दूसरी ओर डिमांड-सप्लाई गैप को भरने के लिए इंपोर्ट लगातार बढ़ रहा है। भारत सरकार की चिंता यह है कि एक ओर वह किसानों की आय बढ़ाने के लिहाज से जूझ रही है दूसरी ओर दलहन जैसी हाई डिमांड और हाई वैल्यू कमोडिटी के इंपोर्ट पर मोटा खर्च करना पड़ रहा है।

फॉर्मूला क्या
भारत सरकार दालों में आत्मनिर्भरता मिशन के तहत 10 वर्ष में डिमांड-सप्लाई गैप को भरना चाहती है। इसके लिए दालों को एमएसपी फॉर्मूला के बजाय अरहर, उड़द, चना और मसूर जैसी प्रमुख दालों के लिए एमएसपी को डिमांड, सप्लाई और प्रॉडक्शन पैटर्न के साथ लिंक करने पर विचार कर रही है। एमएसपी में दरअसल केवल प्रॉडक्शन कॉस्ट को ही शामिल किया जाता है। जब एमएसपी लागत के बराबर या उससे कम हो जाता है तो किसान अरहर उपजाने से पीछे हट जाते हैं जिससे इंपोर्ट का दबाव बढ़ जाता है। इस मिशन के तहत सरकार का सबसे ज्यादा फोकस अरहर पर है। शॉर्ट सप्लाई होने पर अफ्रीकी देशों और म्यांमार से इंपोर्ट करनी पड़ जाती है। दाल उत्पादन में आत्मनिर्भरता मिशन के लिए सरकार अरहर, उड़द और मसूर पर विशेष फोकस करना चाहती है। इसके लिए 1 हजार करोड़ रुपये का बजटीय आवंटन कर 6 साल के लिए एक स्ट्रेटेजी बनाई गई है। वित्त वर्ष 2025-26 के लिए अरहर का एमएसपी 8000 प्रति क्विंटल रखा गया है, जबकि मूंग का एमएसपी 8868 है। मूंग 60-70 दिन की फसल है और साल में तीन बार उगाई जा सकती है, जबकि अरहर 120-160 दिन में तैयार होती है और साल में एक बार ही बोई जाती है। अरहर की मांग भी मूंग से ज्यादा है। अरहर का चैलेंज: महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों में अरहर की खपत बहुत ज्यादा है, जबकि मूंग की खपत राजस्थान और दक्षिण भारत में सीमित है। अरहर का उत्पादन वित्त वर्ष 21 में 43 लाख टन था जो घटकर वित्त वर्ष 25 में 35 लाख टन टन रह गया है। चिंता यह भी है कि इस दौरान अरहर की उत्पादकता 914 किलो प्रति हेक्टेयर से घटकर 823 किलो प्रति हेक्टेयर रह गई। इसके उलट मूंग का उत्पादन 30 लाख टन से बढक़र 38 लाख टन हो गया और उत्पादकता 601 से बढक़र 685 किलो प्रति हेक्टेयर हो गई है। वित्त वर्ष 23 में अरहर की खपत 46 लाख टन थी जबकि मूंग की 35 लाख टन। इस स्कीम के तहत विशेष रूप से अरहर के लिए 20 लाख हेक्टेयर उपजाऊ भूमि की पहचान की गई है। सरकार पांच साल की योजना के तहत सिंचाई और किसानों की ट्रेनिंग पर निवेश भी करेगी। एनेलिस्ट कहते हैं कि जितना दालों के इंपोर्ट पर खर्च किया जा रहा है उसका 25 परसेंट भी किसानों को इंसेंटिव मिल जाए तो किसानों की आमदनी बढ़ सकती है और विदेशी मुद्रा की बचत हो सकती है।


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