इंडिया-यूएस ट्रेड डील को लेकर बहुत तेज एक्टिविटी हो रही हैं। नतीजा क्या होगा कौन जाने। लेकिन भारत के एक्सपोर्टरों ने सरकार को ट्रंप टैरिफ को बाईपास करने का रास्ता दिखा दिया है और वो है डॉलर के मुकाबले रुपये के डीवेल्यूएशन यानी अवमूल्यन का। एक्सपोर्टरों ने सरकार से कहा है कि यदि उन्हें अमेरिकी रेवेन्यू को अस्थायी रूप से रुपये को करंट एक्सचेंज रेट से 15 परसेंट कम वेल्यू पर कन्वर्ट करने की मंजूरी दे तो बात बन सकती है। इंजीनियरिंग एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल ऑफ इंडिया के प्रेसिडेंट पंकज चड्ढा के अनुसार डॉलर के मुकाबले रुपये की एक्सचेंज रेंट 103 रुपये के आसपास होने पर वायबिलिटी आ जाएगी। अभी डॉलर 88.17 रुपये का है जो कि रुपये का रिकॉर्ड लो है। चड्ढा ने कहा कि एक्सपोर्टर इस बारे में अगले सप्ताह आरबीआई के गवर्नर संजय मल्होत्रा से मीटिंग करेंगे। उन्होंने कहा कि हाई टैरिफ के कारण उन्हें अमेरिका जाने वाले शिपमेंट में लगभग 30 परसेंट का नुकसान हो रहा है, और वे चाहते हैं कि कम से कम आधा बोझ सरकार उठाए। भारत पर 50 परसेंट टैरिफ लगा देने के कारण वियतनाम, बांग्लादेश आदि देशों के मुकाबले भारतीय प्रॉडक्ट्स नॉन-कंपीटिटिव हो गए हैं। अमेरिका भारत का सबसे बड़ा एक्सपोर्ट मार्केट है और टेक्सटाइल और जेम्स एंड ज्यूलरी सैक्टर में बड़े पैमाने पर जॉब्स जाने का खतरा पैदा हो गया है। एनेलिस्ट कहते हैं कि आरबीआई पहले से ही रुपये को धीरे-धीरे कमजोर होने दे रहा है। इस साल डॉलर के मुकाबले रुपया 2.8 परसेंट कमजोर हुआ है। एक्सपोर्ट कंपीटिटिवनैस को सुधारने के लिए सरकार के पास रुपये के डीवेल्यूएशन का रास्ता है। हालांकि इसके अपने रिस्क है और करेंसी के प्रति धारणा को नुकसान पहुंच सकता है। यदि आरबीआई विदेशी मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप करने के लिए मजबूर होता है तो विदेशी मुद्रा भंडार में कमी आ सकती है। कमजोर करेंसी से इंपोर्ट महंगे हो जाएंगे और विदेशी निवेशक भावना को नुकसान होगा। हालांकि करेंसी कन्सल्टेंट मेकलाई फाइनेंशियल सर्विसेज के सीईओ जमाल मेकलाई कहते हैं कि सब्सिडी सरकार से आनी चाहिए न कि एक्सचेंज रेट से। एक्सपोर्टरों ने सरकार से लोन रीपेमेंट रोकने, ब्याज दर घटाने, कोलेटरल फ्री वर्किंग कैपिटल, सैलरी सपोर्ट आदि की भी मांग की है।