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01-08-2025

कंट्रोल से बाहर होती ‘कीमतें’!

  •  पिछले कुछ सालों से लगभग हर देश की इकोनोमी वहां की सरकारों, लोगों व एक्सपर्टों के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण केन्द्र बन गई है जिसके ईर्द-गिर्द हर तरह का निर्णय आकर ठहरने लगा है। भले ही अपनी-अपनी इकोनोमी की चिंता देश कर रहे हो पर सच्चाई यह है कि ज्यादातर देशों का अपनी इकोनोमी पर कंट्रोल कमजोर होता जा रहा है जिसके चलते बाजारों में ‘कीमतों’ को काबू में रखना भी मुश्किल हो गया है। अगर हम गौर करें तो बाजारों में मिलने वाली कई चीजों की कीमतें जितनी जल्दी-जल्दी आजकल घटने से ज्यादा बढऩे लगी है उतनी इतिहास में कभी नहीं देखी गई। जयपुर के एक मशहूर किराना कारोबारी ने बताया कि ड्राई-फ्रूट की कीमतों में हाल ही में 10-20 प्रतिशत की तेजी आई है जिससे कई कस्टमर सस्ते भाव के ड्राई फ्रूट खरीदने लगे हैं। ऑनलाइन खरीददारी के ट्रेंड में प्रोडक्ट्स की कीमतें हर थोड़े-थोड़े दिनों में स्कीम व ऑफर के हिसाब से बदलती रहती है। ऊबर, ओला जैसी टैक्सियों के किराए समय और डिमांड के हिसाब से लगातार बदलते है और कई बार एक ही रूट का 1.5 से 2 गुना किराया वसूला जाता है। यही ट्रेंड हवाई किरायों में रहता है जहां किराए ज्यादातर बढ़े हुए या ज्यादा ही रहने लगे हैं। पेट्रोल-डीजल की कीमतें किसी फार्मूले की बजाए सरकार की मर्जी से तय होने लगी है और इनकी आवश्यकता ऐसी है कि लोग घटने-बढऩे पर ध्यान दिए बिना इनके लिए हर कीमत चुकाने के लिए तैयार हो चुके हैं। कीमतों को अपने काबू में रखना अब कारोबारों के लिए भी सबसे बड़ा चैलेंज बन चुका है क्योंकि ट्रेड वार, टैरिफ, सप्लाई चैन, कंपीटीशन, सरकारी नियम व बढ़ते खर्चों से लगातार जूझने वाले कारोबारियों के लिए अपनी मर्जी से अपने प्रोडक्ट या सर्विस की कीमतें तय करना अब इतिहास की बात बनकर रह गई है। कीमतों के बिहेवियर को समझना व उसे काबू में रखना अब और मुश्किल होता जाएगा क्योंकि दुनिया में कई देश ऐसी व्यवस्था को स्वीकारने लगे हैं जिसमें रोजाना का सामान बेचने वाली दुकानों में दिन में कई बार कीमतें बदलती है। ऐसे स्टोर नार्वे में वर्ष 2012 से चल रहे हैं जहां हर प्रोडक्ट के आगे इलेक्ट्रोनिक बोर्ड लगा है और इनपर कस्टमर अपनी आंखों के सामने कीमतों को बदलता देखते हैं। नार्वे में डिजिटल प्राइस लगाने की शुरुआत कंपीटीशन से लडऩे के लिए की गई थी जो शुरुआत में महीने में एक बार बदलती थी लेकिन धीरे-धीरे हर सप्ताह बदलने लगी और अब दिन में 20-100 बार भी बदलती है।  खास बात यह है कि कीमतों में कमी को तो दिन में कस्टमर के सामने ही की जाती है जबकि कीमतों में बढ़ोतरी रात में की जाती है। एक बटन दबाकर कंपीटीशन को चुनौती देने की यह व्यवस्था अब यूरोप के कई शहरों व अमेरिका में भी शुरू होने वाली है जिसके बाद इसे अन्य देशों तक पहुंचने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। ‘कीमतों’ के फ्यूचर को जानना है तो नार्वे की इस व्यवस्था को देखने की राय कई एक्सपर्ट देते हैं जो वाकई में कीमतों के एक समान न रहने व कभी भी बदल जाने की अजीबो-गरीब बाजार व्यवस्था का दिलचस्प उदाहरण बन गया है। कीमतों के बार-बार बदलने की व्यवस्था में कस्टमर से ज्यादा कीमत वसूलकर अपना मार्जिन भी बढ़ाया जाता है और यह अब नार्वे के लोगों की लाइफस्टाइल का हिस्सा बन गया है। गर्मी के किसी दिन अचानक आइसक्रीम का महंगा होना या छुट्टी के दिनों में कई प्रोडक्ट की कीमतें बढ़ जाना अब वहां आम बात हो चुकी है। हमारे यहां यह व्यवस्था स्वीकार होगी या नहीं यह तो समय बताएगा पर इससे कीमतों पर पहले से कमजोर होता कंट्रोल शायद बिल्कुल ही काबू से बाहर हो जाएगा और कई कंपनियों के लिए तय सीमा में निश्चित मार्जिन पर कारोबार करना नई बाजार व्यवस्था में बने रहने के लिए जरूरी बनता चला जायेगा।

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कंट्रोल से बाहर होती ‘कीमतें’!

 पिछले कुछ सालों से लगभग हर देश की इकोनोमी वहां की सरकारों, लोगों व एक्सपर्टों के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण केन्द्र बन गई है जिसके ईर्द-गिर्द हर तरह का निर्णय आकर ठहरने लगा है। भले ही अपनी-अपनी इकोनोमी की चिंता देश कर रहे हो पर सच्चाई यह है कि ज्यादातर देशों का अपनी इकोनोमी पर कंट्रोल कमजोर होता जा रहा है जिसके चलते बाजारों में ‘कीमतों’ को काबू में रखना भी मुश्किल हो गया है। अगर हम गौर करें तो बाजारों में मिलने वाली कई चीजों की कीमतें जितनी जल्दी-जल्दी आजकल घटने से ज्यादा बढऩे लगी है उतनी इतिहास में कभी नहीं देखी गई। जयपुर के एक मशहूर किराना कारोबारी ने बताया कि ड्राई-फ्रूट की कीमतों में हाल ही में 10-20 प्रतिशत की तेजी आई है जिससे कई कस्टमर सस्ते भाव के ड्राई फ्रूट खरीदने लगे हैं। ऑनलाइन खरीददारी के ट्रेंड में प्रोडक्ट्स की कीमतें हर थोड़े-थोड़े दिनों में स्कीम व ऑफर के हिसाब से बदलती रहती है। ऊबर, ओला जैसी टैक्सियों के किराए समय और डिमांड के हिसाब से लगातार बदलते है और कई बार एक ही रूट का 1.5 से 2 गुना किराया वसूला जाता है। यही ट्रेंड हवाई किरायों में रहता है जहां किराए ज्यादातर बढ़े हुए या ज्यादा ही रहने लगे हैं। पेट्रोल-डीजल की कीमतें किसी फार्मूले की बजाए सरकार की मर्जी से तय होने लगी है और इनकी आवश्यकता ऐसी है कि लोग घटने-बढऩे पर ध्यान दिए बिना इनके लिए हर कीमत चुकाने के लिए तैयार हो चुके हैं। कीमतों को अपने काबू में रखना अब कारोबारों के लिए भी सबसे बड़ा चैलेंज बन चुका है क्योंकि ट्रेड वार, टैरिफ, सप्लाई चैन, कंपीटीशन, सरकारी नियम व बढ़ते खर्चों से लगातार जूझने वाले कारोबारियों के लिए अपनी मर्जी से अपने प्रोडक्ट या सर्विस की कीमतें तय करना अब इतिहास की बात बनकर रह गई है। कीमतों के बिहेवियर को समझना व उसे काबू में रखना अब और मुश्किल होता जाएगा क्योंकि दुनिया में कई देश ऐसी व्यवस्था को स्वीकारने लगे हैं जिसमें रोजाना का सामान बेचने वाली दुकानों में दिन में कई बार कीमतें बदलती है। ऐसे स्टोर नार्वे में वर्ष 2012 से चल रहे हैं जहां हर प्रोडक्ट के आगे इलेक्ट्रोनिक बोर्ड लगा है और इनपर कस्टमर अपनी आंखों के सामने कीमतों को बदलता देखते हैं। नार्वे में डिजिटल प्राइस लगाने की शुरुआत कंपीटीशन से लडऩे के लिए की गई थी जो शुरुआत में महीने में एक बार बदलती थी लेकिन धीरे-धीरे हर सप्ताह बदलने लगी और अब दिन में 20-100 बार भी बदलती है।  खास बात यह है कि कीमतों में कमी को तो दिन में कस्टमर के सामने ही की जाती है जबकि कीमतों में बढ़ोतरी रात में की जाती है। एक बटन दबाकर कंपीटीशन को चुनौती देने की यह व्यवस्था अब यूरोप के कई शहरों व अमेरिका में भी शुरू होने वाली है जिसके बाद इसे अन्य देशों तक पहुंचने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। ‘कीमतों’ के फ्यूचर को जानना है तो नार्वे की इस व्यवस्था को देखने की राय कई एक्सपर्ट देते हैं जो वाकई में कीमतों के एक समान न रहने व कभी भी बदल जाने की अजीबो-गरीब बाजार व्यवस्था का दिलचस्प उदाहरण बन गया है। कीमतों के बार-बार बदलने की व्यवस्था में कस्टमर से ज्यादा कीमत वसूलकर अपना मार्जिन भी बढ़ाया जाता है और यह अब नार्वे के लोगों की लाइफस्टाइल का हिस्सा बन गया है। गर्मी के किसी दिन अचानक आइसक्रीम का महंगा होना या छुट्टी के दिनों में कई प्रोडक्ट की कीमतें बढ़ जाना अब वहां आम बात हो चुकी है। हमारे यहां यह व्यवस्था स्वीकार होगी या नहीं यह तो समय बताएगा पर इससे कीमतों पर पहले से कमजोर होता कंट्रोल शायद बिल्कुल ही काबू से बाहर हो जाएगा और कई कंपनियों के लिए तय सीमा में निश्चित मार्जिन पर कारोबार करना नई बाजार व्यवस्था में बने रहने के लिए जरूरी बनता चला जायेगा।


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