टैरिफ की लड़ाई से घिर चुके दुनिया के कई देशों पर अकेला अमेरिका क्यों भारी पड़ रहा है इसके भले ही कई कारण बताए जा रहे हो लेकिन सबसे बड़ा कारण राष्ट्रपति ट्रम्प का अमेरिका को Great बनाने का सिर्फ एक ही मिशन है जिसके लिए वे हर कदम उठाने की हिम्मत ले पा रहे हैं। ट्रम्प द्वारा लगाए जा रहे टैरिफ सीधे-सीधे अमेरिका में महंगाई को बढ़ावा देने वाले साबित होंगे लेकिन यह जानते हुए भी वहा के ज्यादातर लोग ट्रम्प के इस निर्णय का समर्थन कर रहे हैं जिन्हें यह भरोसा है कि महंगाई का सामना करने की तरकीब भी ट्रम्प के पास जरूर होगी। टैरिफ वार के बीच यह हकीकत तो दुनिया के सामने फिर से स्पष्ट हो गई कि सिर्फ एक-दो देश ही अमेरिका को चुनौती देने की ताकत रखते है जबकि ज्यादातर देश आज भी किसी न किसी रूप में अमेरिका के दबाव में रहते हैं भले ही वहां के लीडर अपनी जनता को कुछ भी बताते हो। राष्ट्रपति ट्रम्प ने टैरिफ वार छेडक़र एक बात और साफ कर दी कि जब बात देशहित की होती है तो अन्य देशों से यारी-दोस्ती कुछ काम की नहीं होती यानि वे भले ही कई देशों के लीडरों को अपना दोस्त कहते आए हो लेकिन उन्हीं दोस्त देशों को सबसे ज्यादा टैरिफ का सामना करना पड़ रहा है। अमेरिका कई सालों से बढ़ते उधार व कारोबारी घाटे की समस्या से जूझ रहा है जिन्हें कम करने के जितने भी प्रयास आजतक पूर्व राष्ट्रपतियों ने किए वे ज्यादा असरदार नहीं साबित हुए। एक कारोबारी होते हुए राष्ट्रपति ट्रम्प शायद ‘उधार’ और ‘घाटे’ की गंभीरता को ज्यादा अच्छी तरह समझ पाए इसलिए उनका हर निर्णय इन्हें मैनेज करते हुए कम करने पर ही आकर ठहरने लगा है। टैरिफ लगाने से लेकर हार्वर्ड जैसे टॉप संस्थानों की फंडिंग रोकने के निर्णय लेना कोई आसान काम नहीं है वह भी तब जब चीन जैसे देश हर सेक्टर में अमेरिका के सामने चुनौती बनकर खड़े हो चुके हैं।
चाहे अमेरिकी डॉलर हो, वहां की इंडस्ट्री हो या एज्युकेशन व रिसर्च का मामला हो, किसी भी रूप में अमेरिका को कमजोर करने के प्रयासों को राष्ट्रपति ट्रम्प सीधा टारगेट कर रहे हैं व साफ-साफ सबके सामने चेतावनी देते हैं कि अमेरिका को कमजोर करने की कोई भी चाल कामयाब नहीं होने दी जाएगी। BRICS देशों द्वारा अपनी करेंसी में ट्रेड करके अमेरीकी डॉलर को चुनौती देने की सोच को राष्ट्रपति ट्रम्प कामयाब न होने देने की बात कई बार कह चुके हैं। दुनिया के देशों के बीच यह सहमति कई वर्षों से काम कर रही थी कि जिसे जहां से जो सस्ता मिलेगा वह उसकी खरीद करेगा लेकिन अब इस सहमति पर अमेरिका आपत्ति करने लगा है और भारत-रूस के बीच तेल की खरीद इसका एक उदाहरण है भले ही इसके लिए यूक्रेन-रूस के युद्ध को कारण बताया जा रहा हो लेकिन कहीं न कहीं अमेरिका की नजर भारत में तेल के बढ़ते कंजम्पशन पर है। पूरी दुनिया से राजनीति की लड़ाई जीतकर अमेरिका के राष्ट्रपति बने ट्रम्प ने इकोनोमिक व कारोबारी लड़ाई छेड़ दी है जो शायद वहीं लीडर कर सकता है जो सबसे पहले देश हित को सर्वोपरि रखता हो क्योंकि देशहित में लिए गए कड़े फैसलों की ताकत को जनता इंटेलिजेंट न होते हुए भी अपनी Common Sense की पॉवर से समझ लेती है और उन फैसलों में साथ देने लगती है। क्या हमारी लीडरशिप व जनता के बीच ऐसा भरोसा है या क्या हमारी लीडरशिप देशहित में अमेरिका से भिड़ जाने की ताकत रखती है यह तो समय बता ही देगा लेकिन इतिहास में हुये कई आंदोलनों व बड़ी घटनाओं से सीखे तो पता चलता है कि हर चुनौती को अवसर बनाने के लिए अपनी विशेषताओं पर फोकस करना फायदेमंद होता है और हमारे देश की विशेषताओं की सही पहचान करके उनके दम पर दुनियां में छा जाना ही देश के लिए कुछ भी करने की सोच को आगे बढ़ा सकता है।