मोटे तौर पर विचार के मायने है सोचने की क्रिया। कोई भी विचार अच्छे व बुरे प्रभाव से मुक्त नहीं है। मन में विचार यदि नफरत वाला हो या नकारात्मक हो तो ऐसे विचार के उदित होने से देह में एक प्रकार का विष सृजित होने लगता है, जो जब फैलता है तो न केवल उस व्यक्ति को बल्कि और भी नुकसान पहुंचाता है। इसी तरह जब विचार में सकारात्मकता हो और वह उदारता वाला हो तो न केवल खुद को सक्षम बनाता है बल्कि साथ वालों को भी ताकत देता है और सहजता भी। वस्तुत: विचारों में फलदात्री शक्ति है, वैसी किसी भी वस्तु में नहीं। जो व्यक्ति उपकार और उन्नति के संबंध में कल्पना या मनन करते रहते हैं, वे अदृश्य तौर पर संसार की सबसे बड़ी सेवा करते हैं। विश्व में अनेक सूक्ष्म शक्तियां हैं, हालांकि हम उन्हें आंखों से नहीं देख पाते, तथापित उनको स्वीकार अवश्य करते हैं। जैसे हवा को ही लीजिये, वह आंख से दिखाई नहीं देती, लेकिन उसका होना असिद्ध भी नहीं। गर्मी से पानी भाप बन कर आकाश की ओर जाते हुए दिखाई नहीं देता, लेकिन फिर भी इस बात को सब जानते हैं। इसी तरह विचारों को खुली आंखों से नहीं देखा जा सकता, लेकिन यह सच है कि उनकी भी पानी और हवा के समान तरंगे बहती रहती हैं। विचारों की लहरों में एक बड़ी गजब की ताकत यह है कि वह अपने समान अन्य विचारों को बड़ी तीव्रता और शीघ्रता से खींच कर एकत्र कर लेती है। यदि हमारी आंखों में विचारों की लहरों को उड़ते हुए देखने की शक्ति होती तो देखते कि हर एक व्यक्ति के मस्तिष्क में से बिजली या वायु की जैसी अगणित लहरें छूट-छूट कर आकाश में फैलती जा रही है, जब मनुष्य विचार बदलता है, तभी इन लहरों का रंग-रूप भी बदल जाता है। दया की लहरें अलग तरह की होती हैं, तो छल की अलग तरह की। हां एक ही प्रकार के विचार चाहें वे अलग-अलग मनुष्यों द्वारा ही किये गये हों, उनका रंग रूप बिलकुल एक सा होगा। यह लहरें एक सी होने के कारण आकाश में आगे जाकर आपस में उसी तरह मिल भी जाती हैं। यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि विचारों में आकर्षण की शक्ति होती है और वह अपने सदृश या समानांतर सोच वाली लहर को तुरंत ही आकृष्ट कर लेती है। हजारों मील दूर उड़ते हुए विचारों को हमारे पास आने में शायद एक दो सैकंड लगे, इतनी तेज इनकी गति होती है। जब हम गुस्सा करते हैं, तो उसका रूप बहुत बार व्यापक हो जाता है, वह केवल हमारी अपनी शक्ति के कारण ही नहीं होता बल्कि जितने भी लोग क्रोधित होते हैं, उनकी सबकी क्रोध विचारधारा एकत्रीकरण होकर क्रोध करने वाले व्यक्ति तक पहुंच जाती है और मस्तिष्क में आकर्षण होने के कारण वहां पहुंच जाते हैं, नतीजा क्रोध का आकार बढ़ जाता है। जो लोग बुरे विचार करते हैं, वे सचमुच कुछ ही समय में बहुत बुरे हो जाते हैं। जैसा हम अपने को समझते हैं, जैसा विचार करते हैं, वैसे ही बन जाते हैं।
सम्मिलित रूप से विचार करते पर तो यह शक्ति और भी प्रवाल अर्थात प्रबल हो जाती है। कोई व्यक्ति रोज-रोज आपस में बीमारी, मौत, तकलीफ, गरीबी आदि की चर्चा करते रहें, तो वे वैसे ही बन जाते हैं। फलां बीमार है, वह गरीब है, उसके ये तकलीफ है यदि इस प्रकार की कहानियां बार बार कही सुनी जाये तो मानस में वैसे ही चित्र बन जाते हैं और वे बीमारी तथा दुख: की जीवन घातिनी लहरों को अपनी ओर खींचने लगती हैं। कहने सुनने वाले लोग रोग व दुख: में फंस सकते हैं। जो लोग नकारात्मक बातें करते हैं और हम अपना समय अधिकतर उनके पास व्यतीत करते हैं, तो यकीन मानिये हम भी उस तरह के अनिष्ट की चपेट में आ सकते हैं। दरअसल नकारात्मक विचार बिच्छू की तरह होते हैं, जब बिच्छू अपनी मां के गर्भ में होता है, तो वह वहां का मांस खाने लगता है और पेट फाडक़र जब वह बाहर आता है तो यहां आकर दूसरों को खाने लगता है। यही स्थिति बुरे विचारों की होती है। पाप, द्वेष, घृणा, ईष्र्या और निराशा की विचार तरंगों में एक प्रकार का प्राणघातक सूक्ष्म जीवाणु होता है, जो मनुष्य की जीवनी शक्ति को खा डालते हैं, नतीजा ऐसा व्यक्ति बीमार रहता है। इसके विपरीत प्रेम, उदारता, परोपकार और प्रसन्न रहने वाले व्यक्ति के साथ रहें तो सदा सकारात्मक बातें सामने आती हैं, उससे मन प्रसन्न रहता है, चित्त निरोग रहता है। उत्तम विचार करने वाले व्यक्ति का रक्त शुद्ध रहता है और बुद्धि निर्मल। ऐसा व्यक्ति स्वल्प परिश्रम से ही बहुत कुछ कर सकता है। यहां एक लौकिक उदाहरण देना भी बनता है। किसी व्यक्ति को कोई दिक्कत, तकलीफ आती है, तो वह अपने किसी भी आराध्य देवी-देवता को प्रणाम करता है और कहता है कि मेरे यह तकलीफ आ गई है, जल्दी निवारण हो जाये तो इतने का प्रसाद चढ़ा दूंगा और सवा मणी कर दूंगा। यहां से उस व्यक्ति के दिमाग में ईश्वर के प्रति आस्था के कारण सकारात्मक सोच पैदा होती है और उस सोच का दायरा जब बढऩे लगता है तो वह व्यक्ति दिक्कत या तकलीफ से मुक्ति भी पा लेता है और यह मानता है कि ईश्वर ने ऐसा किया है। ईश्वर के प्रति उसकी आस्था अपनी जगह है और उस आस्था का सम्मान भी है, लेकिन साथ ही महत्वपूर्ण बात यह है कि उसके विचारों में जो सकारात्मकता का प्रवेश हुआ, उसका लाभ उस व्यक्ति को मिला। बहुत से चिकित्सक मृदुभाषी होते हैं। उन्हें दिखाने कोई मरीज जाता है तो उस चिकित्सक के व्यवहार और बातों से ही उस मरीज का आधे से अधिक रोग चला जाता है। फिर चिकित्सक उसका कॉन्फीडेंस बढ़ा देता है, तो उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है। जो दवा वह चिकित्सक देता है, वह उस रोगी के सकारात्मक विचारों के कारण जल्दी असर करती है और ऐसा रोगी जल्दी ठीक हो जाता है। हम उद्योग-व्यापार जगत में देखें तो एक नियोक्ता में खुद और उसके अधीनस्थ अधिकारियोंं-कर्मचारियों व श्रमिकों में यदि सकारात्मक सोच है, तो वह प्रतिष्ठान बहुत अच्छे से चलता है और वहां किसी के मन में भी नकारात्मक सोच आ गया तो सबसे पहले उस व्यक्ति के साथ और बाद में उस प्रतिष्ठान के साथ नकारात्मक स्थिति बनने लग जायेगी। ऐसे में एक नियोक्ता के लिए महत्वपूर्ण है, वह इस बात का ध्यान रखे कि उसके यहां कार्यरत अधिकारियों-कर्मचारियों व श्रमिकों की सोच क्या है। सोच में नकारात्मक भाव है, तो ऐसे व्यक्तियों के स्वभाव व सोच में बदलाव की कोशिश की जाये और सकारात्मक भाव नहीं आ रहा है तो ऐसे व्यक्ति को संस्थान से विदा कर देना ही उचित होगा। हम जब भी कोई कार्य करते हैं, तो अवरोध आना स्वाभाविक है, लेकिन उस अवरोध से लडऩे की क्षमता सकारात्मक सोच से ही उत्पन्न होती है। सोच सकारात्मक है तो विजयश्री दूर नहीं।