दशकों तक ओवरसप्लाई वाले देशों में बिजली की किल्लत होने लगी है। किल्लत न सही लेकिन जितनी कैपेसिटी बढ़ रही है उससे कहीं तेज डिमांड में ग्रोथ है। कारण सब जानते हैं एआई और डेटा सेंटर। लेकिन भारत की ही तरह दुनियाभर के देशों में हर घर बिजली पहुंचाने की मुहिम चल रही है। नतीजा कॉपर वाकई पार्टी पॉपर (Party Pauper) यानी पार्टी खराब करने वाला साबित होने जा रहा है। रिपोर्ट कहती हैं कि ग्लोबल कॉपर इंडस्ट्री के अनुमान से तेज कॉपर की डिमांड बढ़ रही है और इसका सबसे बड़ा कारण ईवी, ग्रीन एनर्जी, होम एप्लायंस भी इस शॉर्ट सप्लाई को हवा दे रहे हैं। एनेलिस्ट कहते हैं कि 2030 तक कॉपर 12 हजार डॉलर करीब 10 लाख रुपये के लेवल पर पहुंच जाएगा। जो मौजूदा 9700 डॉलर टन के मुकाबले करीब 23 परसेंट ज्यादा है। कॉपर की कंडक्टिविटी (चालकता), ड्यूरेबिलिटी (मजबूती) और वर्सेटिलिटी (बहुउपयोगिता) का कोई मुकाबला नहीं है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार वर्ष 2024 में ट्रांसमिशन ग्रिड पर 390 बि. डॉलर का इंवेस्टमेंट हुआ था और इस साल 400 बि. डॉलर का इंवेस्टमेंट होने का अनुमान है। बेंचमार्क मिनरल इंटेलीजेंस के माइकल फिंच कहते हैं कि पावर जेनरेशन और ट्रांसमिशन नेटवर्क को अपग्रेड करने में इस साल 12.52 मिलियन टन कॉपर की जरूरत होगी जो 2030 तक 14.87 मिलियन टन हो जाएगी। बैंक ऑफ अमेरिका के माइकल विदमर कहते हैं कि ग्लोबल कॉपर डिमांड 2030 तक 30.32 मिलियन टन हो जाएगी लेकिन सप्लाई 28.48 मिलियन टन की ही हो पाएगी। साथ में लगी टेबल से पता चलता है कि केवल वेदांता के तुतिकोरिन प्लांट के बंद हो जाने से भारत कॉपर के नेट एक्सपोर्टर से नेट इंपोर्टर बन गया और इसे 2017-18 के लेवल तक पहुंचने में ही 7 साल लग गए। वर्ष 2017-18 में भारत का कुल रिफाइंड कॉपर प्रॉडक्शन 8.30 लाख टन था जो प्लांट के बंद होने से एक झटके में गिरकर 4.30 लाख टन रह गया था। मार्केट कंसल्टेंट सीआरयू का मानना है कि अकेले डेटा सेंटर से ही कॉपर की डिमांड 2025 के अंत तक 2.60 लाख टन रहेगी जो 2030 तक बढक़र 6.50 लाख टन हो सकती है। बीएमआई का डेटा कहता है कि केवल इलेक्ट्रिक वेहीकल्स के लिए वर्ष 2.04 लाख टन कॉपर की डिमांड थी जो 2025 में 12 लाख टन और 2030 तक 22 लाख टन हो जाएगी।


