सामान्यत: यह कहा जाता है कि हम बच्चों को कोई शिक्षा न दें, तो वे बिगड़ सकते हैं, इसी तरह उन्हें आदर्श न सिखायें तो भी वे बिगड़ सकते हैं। यहां दिलचस्प यह है कि हम हजारों सालों से उन्हें शिक्षा भी दे रहे हैं और आदर्श भी सिखा रहे हैं पर क्या सभी बिगडऩे से बचे हुए हैं। बच्चों को रामचरित मानस और गीता के बारे में भी बताया जाता है, महाभारत और रामायण के चरित्रों से सीख लेने की प्रेरणा दी जाती है, क्या फिर भी सभी सुसंस्कृत हैं। यह सवाल उठना स्वाभाविक है। पर यहां दो बातें हैं, पहली तो यह कि हम बच्चे पर अगर कुछ थोप देते हैं, तो उसका मन और उसकी आत्मा हमेशा के लिए परतंत्र हो जाती है। दूसरी बात यह कि बच्चे के भीतर छिपी हुई जो शक्तियां हैं, उन्हें हम सहारा दें और उन्हें विकसित होने का मौका तो बच्चों का बेहतर तरीके से विकसित होगा। समझें उस बच्चे की उन ताकतों को जो उसके भीतर सोई हुई है, उन सोई हुई ताकतों को जगायें, तो बच्चा निखर जायेगा। बच्चे को किसी सांचे में ढाला नहीं जाता, बल्कि उसका स्वाभाविक विकास हो यह सुनिष्चित करने की कोशिश होनी चाहिये और साथ ही उसकी जो चेतना है उसे दिशा देने की कोशिश भी। पर सामाजिक या पारिवारिक तौर पर यह होता है कि बच्चे को एक बंधे-बंधाये ढांचे में ढाला जाता रहा है। बच्चों को विभिन्न देवी-देवताओं और महापुरुषों के बारे में बताया जाता है, राम और कृष्ण से लेकर महावीर और महात्मा गांधी तक, उनकी जीवनियों से प्रेरणा लेने के लिए कहा जाता है। जहां तक बात जीवन के आदर्श की है, वहां तक तो ये बातें महत्वपूर्ण भी हैं, लेकिन बच्चों को उन जैसा बनने के लिए कहना कहीं-कहीं अनुचित सा लगता है। इसलिए कि हर व्यक्ति अपने आप में अनूठा होता है और जो वह है वही होता है। बच्चे का अपना एक मन होता है, उसकी अपनी उत्कंठा और इच्छा होती है। उसकी अपनी क्षमता और प्रतिभा होती है। सबसे पहले उसके मन की सुनी जाये कि वह वस्तुत: चाहता क्या है और दूसरे उसकी क्षमता क्या है। हम बच्चों को अढ़ाई साल के करीब होते ही प्ले-स्कूल में डाल देते हैं। यह वह उम्र होती है जब वह बोलने-चलने-भागने लगता है। यह उसका वास्तविक बचपन होता है, इसे प्ले स्कूल में डाल देना कितना उचित है यह विश्लेषण का विषय है। पर सच यह है कि बच्चे को चार साल तक तो कम से कम घर पर ही रखना चाहिये, ताकि वह अपने दादा-दादी, नाना-नानी और माता-पिता के सानिध्य में रहे और उनके साथ खुश रहे। चार साल की उम्र के बाद प्ले स्कूल के बारे में सोचा जा सकता है, पर अधिकतर अभिभावकों की सोच यह होती है कि वहां तो अढ़ाई-तीन साल के बच्चे पहुंच जाते हैं, हमारा बच्चा एक साल लेट नहीं हो जाये। इस सोच से थोड़ा बाहर निकलना चाहिये और बच्चे को घर पर बचपन अधिक अवधि तक मिले यह सुनिश्चित करना चाहिये।
दूसरी बात यह होती है कि बच्चे को स्कूल में भेजकर उस पर टॉप बनने का दबाव बनाना। यह स्थिति थोड़ा अनुचित लगती है। बच्चे को प्रेरित तो किया जा सकता है कि वह पढ़ाई में टॉप करे, लेकिन उस पर दबाव नहीं बनाना चाहिये कि वह टॉप करे। बच्चे की मन स्थिति समझने की कोशिश करें, हर बच्चा कुछ न कुछ बनना चाहता है और क्या बनना चाहता है, इसके लिए उसे केवल गाईड करें, दबाव न डालें। बच्चा अगर उर्जावान है, सक्षम है और खेल में अधिक मन लगता है तो उसकी खेल संबंधी प्रतिभा विकसित होने दे, कोशिश करें कि जिस खेल में उसकी रूचि है, उस खेल में वह पारंगत हो और उसमें टॉप करे इसके लिए उसे प्रेरित करें। उसे सहयोग करें, साधन उपलब्ध करायें। खेलों में एक बार नाम हो गया तो बच्चे को कैरियर भी बन जायेगा और वह ग्लोबल पर्सनैलिटी भी बन सकता है। हर बच्चे में इस तरह का हुनर होता है, लेकिन हम उसे पढ़ाई के बोझ तले दबा देते हैं, इस दबाव के कारण वह बालक वह कुछ नहीं कर पाता, जिसकी उसे इच्छा रहती है या जो वह कर सकता है। अत: बच्चे पर पढ़ाई के लिए कभी बोझ न डालें, लेकिन प्रेरित करें, मार्गदर्शन दें और बाकी वह जो चाहता है, वह उसे करने दें। इन दिनों आपने देखा होगा कि आईआईटी से पासआउट बच्चे चाय की चैन खोल रहे हैं अर्थात आईआईटी से जो ज्ञान मिला, वह अपनी जगह धरा रह गया और बच्चा चाय बनाने की चैन चला रहा है। ऐसे एक दो नहीं अनेक उदाहरण हैं, जहां देखा जा सकता है कि बच्चों ने पढ़ाई के जरिये जो ज्ञान अर्जित किया वह तो धरा रह गया और उनका कैरियर कहीं और बन गया। भारतीय प्रशासनिक सेवा के अनेक अधिकारी यूं एमबीबीएस हैं अर्थात डॉक्टर की डिग्री है, लेकिन कोई पुलिस में, कोई विदेश सेवा में और कोई प्रशासनिक सेवा में नौकरी कर रहा है। अनेक आईआईटी पास-आउट भी भारतीय प्रशासनिक सेवा या भारतीय राजस्व सेवा में काम कर रहे हैं। अत: जो पढ़ा गया है, उसी के अनुरूप रोजगार मिले यह जीवन में आवश्यक नहीं। कोई बच्चा नाचने में दिलचस्पी रखता है, तो कोई गाने में, किसी को शतरंज का शौक है तो किसी को कुछ अन्य, तो उसके हुनर को निखारना एक अभिभावक का दायित्व है। यह हुनर अगर प्रोफेशन बन जाता है, तो इसमें दो बातें होती हैं, पहली तो यह कि उस बच्चे को मनचाही राह मिल जाती है, जिसमें काम करने में उसे संतुष्टि होती है। दूसरी बात यह कि अपने हुनर के जरिये उसे प्रादेशिक, राष्ट्रीय तथा वैश्विक मंच भी मिल सकता है अर्थात वहां तक उसका नाम हो सकता है। बाकी कैरियर के लिए पढ़ाई वाले क्षेत्रों के अलावा स्पोटर््स ऐसा क्षेत्र है जिसमें बहुत स्कोप है। बस अभिभावक थोड़ा सपोर्ट करें तो बहुत रास्ते आगे के लिए बनते हैं। यहां सरकारों से भी अपेक्षा की जा सकती है कि देश में स्पोट्र्स के लिए बेहतर इंफ्रास्ट्क्चर अगर सुलभ करायें और कार्पोरेट सोशियल रेस्पोंसबिलिटीज के जरिये उन्हें सहयोग मिले, सामाजिक संगठन भी सहयोग करें तो न केवल देश खेलों में आगे बढ़ सकता है बल्कि हमारे युवाओं के लिये बहुत से अवसर सृजित हो सकते हैं। इस तरह निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि बच्चे पर दबाव न बनायें, उन्हें खुली आजादी में सांस लेने दें, उन्हें अपना बचपन अपने हिसाब से जीने दें, बस उसका ख्याल रखें, उसे प्रेरित अवश्य करें और साथ में गाईड भी। यही पर्याप्त है, बाकी जीवन की उड़ान वह अपने हिसाब से भरने के लिए सक्षम बने यह सुनिश्चित अवश्य करें।