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17-04-2025

देश में प्रति 10 लाख लोगों पर केवल 15 जज

  •  देश में प्रति दस लाख आबादी पर केवल 15 जज हैं, जो विधि आयोग की प्रति दस लाख की आबादी पर 50 जज की सिफारिश से बहुत दूर है। जारी ‘इंडिया जस्टिस रिपोर्ट’ 2025 में यह जानकारी सामने आई है। इसके ठीक विपरीत, जनवरी 2024 की न्यूयॉर्क टाइम्स समाचार पत्र की खबर के अनुसार, अमेरिका में प्रति 10 लाख की जनसंख्या पर 150 जज हैं। वहीं अक्टूबर 2024 की यूरोप परिषद की रिपोर्ट के अनुसार, 2022 में यूरोप में प्रति 10 लाख जनसंख्या पर औसतन 220 जज हैं। ‘इंडिया जस्टिस रिपोर्ट’ के मुताबिक, ‘1.4 अरब लोगों के लिए भारत में 21,285 जज हैं या प्रति दस लाख की आबादी पर लगभग 15 जज हैं। यह 1987 के विधि आयोग की प्रति दस लाख की आबादी पर 50 जज की सिफारिश से काफी कम है। इस रिपोर्ट में देश में न्याय प्रदान करने के मामले में राज्यों की स्थिति की जानकारी दी गयी है। रिपोर्ट के मुताबिक, उच्च न्यायालयों में रिक्तियां कुल स्वीकृत पदों की 33 प्रतिशत हैं। रिपोर्ट में 2025 में 21 प्रतिशत रिक्तियों का दावा किया गया, जो मौजूदा जज के लिए अधिक कार्यभार को दर्शाता है। रिपोर्ट में बताया गया, राष्ट्रीय स्तर पर जिला न्यायालयों में प्रति जज औसत कार्यभार 2,200 मामले है। इलाहाबाद और मध्यप्रदेश उच्च न्यायालयों में प्रति जज मुकदमों का बोझ 15,000 है। रिपोर्ट के मुताबिक, जिला न्यायपालिका में महिला जज की कुल हिस्सेदारी 2017 में 30 प्रतिशत से बढक़र 38.3 प्रतिशत हो गई है और 2025 में उच्च न्यायालयों में यह 11.4 प्रतिशत से बढक़र 14 प्रतिशत हो गई है। रिपोर्ट में बताया गया, ‘उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट (छह प्रतिशत) की तुलना में जिला न्यायालयों में महिला जज की हिस्सेदारी अधिक है। वर्तमान में, 25 उच्च न्यायालयों में केवल एक महिला मुख्य जज हैं।’ रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली की जिला अदालतें देश में सबसे कम रिक्तियों वाली न्यायिक शाखाओं में से हैं, जहां 11 प्रतिशत रिक्तियां हैं और 45 प्रतिशत महिलाएं जज हैं। रिपोर्ट में बताया गया कि जिला न्यायपालिका में, केवल पांच प्रतिशत जज अनुसूचित जनजाति (एसटी) से और 14 प्रतिशत अनुसूचित जाति (एससी) से हैं। वर्ष 2018 से नियुक्त उच्च न्यायालय के 698 जज में से केवल 37 जज एससी और एसटी श्रेणियों से हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, न्यायपालिका में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का कुल प्रतिनिधित्व 25.6 प्रतिशत है। रिपोर्ट में बताया गया कि कानूनी सहायता पर राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति व्यय 6.46 रुपये प्रति वर्ष है, जबकि न्यायपालिका पर राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति व्यय 182 रुपये है। रिपोर्ट में दावा किया गया कि कोई भी राज्य न्यायपालिका पर अपने कुल वार्षिक व्यय का एक प्रतिशत से अधिक खर्च नहीं करता है। रिपोर्ट में लंबित मामलों को रेखांकित करते हुए बताया गया, ‘कर्नाटक, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम और त्रिपुरा को छोडक़र सभी उच्च न्यायालयों में हर दो में से एक मामला तीन साल से अधिक समय से लंबित है।’ रिपोर्ट के मुताबिक, ‘अंडमान एवं निकोबार, अरुणाचल प्रदेश, बिहार, गोवा, झारखंड, महाराष्ट्र, मेघालय, ओडिशा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल की जिला अदालतों में 40 प्रतिशत से अधिक मामले तीन साल से अधिक समय से लंबित हैं।’ रिपोर्ट में बताया गया कि दिल्ली में हर पांच में से एक मामला पांच साल से अधिक समय से लंबित है और दो प्रतिशत मामले 10 वर्ष से अधिक समय से लंबित हैं। रिपोर्ट में तत्काल और आधारभूत सुधारों की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया तथा रिक्तियों को तत्काल भरने व प्रतिनिधित्व बढ़ाने पर जोर दिया गया।

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देश में प्रति 10 लाख लोगों पर केवल 15 जज

 देश में प्रति दस लाख आबादी पर केवल 15 जज हैं, जो विधि आयोग की प्रति दस लाख की आबादी पर 50 जज की सिफारिश से बहुत दूर है। जारी ‘इंडिया जस्टिस रिपोर्ट’ 2025 में यह जानकारी सामने आई है। इसके ठीक विपरीत, जनवरी 2024 की न्यूयॉर्क टाइम्स समाचार पत्र की खबर के अनुसार, अमेरिका में प्रति 10 लाख की जनसंख्या पर 150 जज हैं। वहीं अक्टूबर 2024 की यूरोप परिषद की रिपोर्ट के अनुसार, 2022 में यूरोप में प्रति 10 लाख जनसंख्या पर औसतन 220 जज हैं। ‘इंडिया जस्टिस रिपोर्ट’ के मुताबिक, ‘1.4 अरब लोगों के लिए भारत में 21,285 जज हैं या प्रति दस लाख की आबादी पर लगभग 15 जज हैं। यह 1987 के विधि आयोग की प्रति दस लाख की आबादी पर 50 जज की सिफारिश से काफी कम है। इस रिपोर्ट में देश में न्याय प्रदान करने के मामले में राज्यों की स्थिति की जानकारी दी गयी है। रिपोर्ट के मुताबिक, उच्च न्यायालयों में रिक्तियां कुल स्वीकृत पदों की 33 प्रतिशत हैं। रिपोर्ट में 2025 में 21 प्रतिशत रिक्तियों का दावा किया गया, जो मौजूदा जज के लिए अधिक कार्यभार को दर्शाता है। रिपोर्ट में बताया गया, राष्ट्रीय स्तर पर जिला न्यायालयों में प्रति जज औसत कार्यभार 2,200 मामले है। इलाहाबाद और मध्यप्रदेश उच्च न्यायालयों में प्रति जज मुकदमों का बोझ 15,000 है। रिपोर्ट के मुताबिक, जिला न्यायपालिका में महिला जज की कुल हिस्सेदारी 2017 में 30 प्रतिशत से बढक़र 38.3 प्रतिशत हो गई है और 2025 में उच्च न्यायालयों में यह 11.4 प्रतिशत से बढक़र 14 प्रतिशत हो गई है। रिपोर्ट में बताया गया, ‘उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट (छह प्रतिशत) की तुलना में जिला न्यायालयों में महिला जज की हिस्सेदारी अधिक है। वर्तमान में, 25 उच्च न्यायालयों में केवल एक महिला मुख्य जज हैं।’ रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली की जिला अदालतें देश में सबसे कम रिक्तियों वाली न्यायिक शाखाओं में से हैं, जहां 11 प्रतिशत रिक्तियां हैं और 45 प्रतिशत महिलाएं जज हैं। रिपोर्ट में बताया गया कि जिला न्यायपालिका में, केवल पांच प्रतिशत जज अनुसूचित जनजाति (एसटी) से और 14 प्रतिशत अनुसूचित जाति (एससी) से हैं। वर्ष 2018 से नियुक्त उच्च न्यायालय के 698 जज में से केवल 37 जज एससी और एसटी श्रेणियों से हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, न्यायपालिका में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का कुल प्रतिनिधित्व 25.6 प्रतिशत है। रिपोर्ट में बताया गया कि कानूनी सहायता पर राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति व्यय 6.46 रुपये प्रति वर्ष है, जबकि न्यायपालिका पर राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति व्यय 182 रुपये है। रिपोर्ट में दावा किया गया कि कोई भी राज्य न्यायपालिका पर अपने कुल वार्षिक व्यय का एक प्रतिशत से अधिक खर्च नहीं करता है। रिपोर्ट में लंबित मामलों को रेखांकित करते हुए बताया गया, ‘कर्नाटक, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम और त्रिपुरा को छोडक़र सभी उच्च न्यायालयों में हर दो में से एक मामला तीन साल से अधिक समय से लंबित है।’ रिपोर्ट के मुताबिक, ‘अंडमान एवं निकोबार, अरुणाचल प्रदेश, बिहार, गोवा, झारखंड, महाराष्ट्र, मेघालय, ओडिशा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल की जिला अदालतों में 40 प्रतिशत से अधिक मामले तीन साल से अधिक समय से लंबित हैं।’ रिपोर्ट में बताया गया कि दिल्ली में हर पांच में से एक मामला पांच साल से अधिक समय से लंबित है और दो प्रतिशत मामले 10 वर्ष से अधिक समय से लंबित हैं। रिपोर्ट में तत्काल और आधारभूत सुधारों की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया तथा रिक्तियों को तत्काल भरने व प्रतिनिधित्व बढ़ाने पर जोर दिया गया।


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