उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि भले ही कैदियों को राहत देने के लिए अदालतें ‘जमानत नियम है, और जेल अपवाद’ के सिद्धांत को मानती हैं, लेकिन समानता ही एकमात्र आधार नहीं है जिस पर आपराधिक मामलों में आरोपी को जमानत दी जा सकती है। न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने कहा कि जमानत की राहत उस कथित अपराध में शामिल हालात पर ध्यान दिए बिना नहीं दी जा सकती, जिसके लिए आरोपी व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया है। पीठ ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा हत्या के एक मामले में आरोपी को दी गई जमानत को रद्द कर दिया। उसे सिर्फ इस आधार पर जमानत दी गई थी कि सह-आरोपी को भी राहत दी गई है। शीर्ष अदालत ने 28 नवंबर के फैसले में कहा, ‘‘जमानत को अक्सर नियम और जेल को अपवाद कहा जाता है। इस बात पर बहुत ज्यादा जोर नहीं दिया जा सकता। साथ ही, इसका मतलब यह नहीं है कि जमानत की राहत उस कथित अपराध में शामिल हालात पर ध्यान दिए बिना दी जानी चाहिए जिसके लिए आरोपी व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया है।’’ उसने कहा, ‘‘इस संबंध में, यह ध्यान रखना होगा कि जमानत देते समय अदालत को कई पहलुओं पर विचार करना होता है। इस न्यायालय ने इतने सारे फैसले दिए हैं, जिनमें ध्यान में रखने लायक जरूरी बातें बताई गई हैं।’’ पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालय ने आरोपी को जमानत देने में सभी जरूरी प्रासंगिक बातों पर विचार नहीं किया। उसने कहा कि ऐसा लगता है कि उच्च न्यायालय ने त्रुटिपूर्ण तरीके से सिर्फ समानता के आधार पर जमानत दे दी, जिसे उसने सीधे तौर पर इस्तेमाल का एक तरीका समझ लिया, जबकि समानता का मकसद आरोपी की भूमिका पर ध्यान देना होता है, न कि एक ही अपराध का होना ही आरोपियों के बीच एकमात्र समानता थी। समानता एकमात्र आधार नहीं है जिस पर जमानत दी जा सकती है, और कानून में यही सही स्थिति है। कैम्ब्रिज शब्दकोश में ‘पैरिटी’ शब्द को ‘समानता’ के तौर पर, खासकर वेतन या पद की बराबरी’ के तौर पर परिभाषित किया गया है। शीर्ष अदालत ने उत्तर प्रदेश के एक गांव में हत्या के एक मामले में यह आदेश दिया, जो गांव वालों के बीच कहासुनी के कारण हुई थी। इस मामले में भडक़ाने वाले एक आरोपी को जमानत दे दी गई और दूसरे सह-आरोपी को बराबरी के आधार पर यह राहत दी गई।