सृष्टि में आदिकाल से धर्म पर चर्चा होती रहती है। भारत में एक दौर था जब मानव के अलावा सुर और असुर अस्तित्व में थे। वह पौराणिक काल था, तब देव उपासना करने वाला व्यक्ति धार्मिक और देव प्रतिकार करने वाला व्यक्ति असुर कहलाता था। कालांतर में नये-नये धर्मों का जन्म हुआ तो लोगों को उनके धर्म के नाम से जाना-पहचाना जाने लगा। जहां तक मेरी सोच है, उसके अनुसार तो जो व्यक्ति धार्मिक होता है, वह धार्मिक ही होता है। जो सच्चा धार्मिक होता है, उसकी लड़ाई किसी धर्म से नहीं होती या किसी धर्म के पालक से नहीं होती, बल्कि उसकी लड़ाई तो अधर्म, असत्य, घृणा और क्रोध से होती है। वह इस बात का सवाल भी नहीं करता कि कौन सा धर्म श्रेष्ठ है, उसके लिए चुनाव भी नहीं कि किस धर्म को चुनना है और उनमें श्रेष्ठ किसे कहना है। सच्चा धार्मिक वही है जो अंधेरे से खुद को बाहर निकाले, प्रकाश की तरफ जाये, आनंद की तरफ जाये, शांति की तरफ जाये, उत्तम स्वास्थ्य की तरफ जाये। यह स्थिति फिर मन में प्रेम का भाव बनाती है यह भाव ही सही मायनों में धर्म कहा जा सकता है। एक किस्सा है किसी गांव का, वहां एक सन्यासी आये। मंदिर में विश्राम कर रहे थे। गांव का एक युवक वहां आ गया, तो सन्यासी को बोला कि मुझे परमात्मा को पाना है कोई रास्ता बतायें। सन्यासी ने उसे देखा और पूछा कि कभी किसी से प्रेम किया है। युवक ने कहा कि वह तो धार्मिक है और धार्मिक लोग तो प्रेम से दूर रहते हैं, इसलिए वह भी प्रेम से दूर रहा। सन्यासी को उसने कहा कि आप कहां फिजूल की बातें कर रहे हैं, मैंने कभी प्रेम-व्रेम नहीं किया बल्कि मुझे तो परमात्मा को पाना है। सन्यासी ने कहा कि याद करो, कोशिश करो शायद कभी थोड़ा बहुत प्रेम किसी को किया हो। युवक ने कहा मैं कसम खा कर कहता हूं मैंने कभी प्रेम नहीं किया, मुझे तो परमात्मा को पाना है, आप कहां बंधन में डालने की बात पूछ रहे हैं। सन्यासी ने कहा कि जब तुमने किसी से प्रेम ही नहीं किया तो फिर मैं कुछ नहीं कह सकता और कर सकता। अगर किसी से प्रेम किया होता तो उसी प्रेम को इतना विकसित किया जा सकता था कि वह परमात्मा का द्वार बन जाता, लेकिन तुमने तो कभी प्रेम किया नहीं, तो तुम्हारे दिल में ऐसा कोई द्वार नहीं जहां से प्रार्थना और परमात्मा दोनों प्रवेश कर सकें। यह कहकर सन्यासी ने असमर्थता जता दी।
यह सच भी है कि जिसने प्रेम नहीं किया वह परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग कैसे पा सकता है। हम जब अपने कक्ष में होते हैं, तो खिडक़ी खोलने के साथ हमें आकाश दिखाई देता है। आकाश उतना ही दिखाई देता है जितना कि खिडक़ी से हम देख सकते हैं। जितना झरोखा उतना ही आकाश। पूरे आकाश को देखने के लिए तो हमें खुले में जाना होगा या किसी पहाड़ी पर खड़े होकर चारों ओर देखना होगा। ठीक यही स्थिति एक बिजनस की होती है। हम बिजनस करते हैं, लेकिन उसका दायरा सीमित रखते हैं, खिडक़ी जितना। उस दायरे का विस्तार अगर कर लें तो वह बहुत व्यापक हो सकता है। धर्म हमें सही मायने में धार्मिक बनाये तभी वह सच्चा धर्म है और सच्चा धर्म मनुष्य को बांधता नहीं है बल्कि उसके दृष्टिकोण को व्यापक बनाता है। प्रेम इसका मार्ग है। पे्रम के मायने है हमारे व्यवसाय में जुड़े जितने भी लोग हैं, चाहे श्रमिक हों, कार्यालय-कर्मी हों, हमारे द्वारा बनाये उत्पाद के विके्रता हों और उनके उपभोक्ता, सभी तक हमारा दृष्टिकोण यदि प्रेम भाव वाला रहे, तो हम इतना कुछ पा सकते हैं कि जिसकी कल्पना नहीं कर सकते। मेरा पांच दशक का अनुभव इस बात को इंगित करता है कि मैंने अपने काम को जितना फैलाया, जितना बढ़ाया उसके पीछे प्रेम की भूमिका महत्वपूर्ण रही। इस प्रेम के जरिये मैंने अपने आर्टिजंस अर्थात बुनकरों-कतवारिनों को अपने काम से प्रेम करने में लिप्त किया। उन्हें इतना स्नेह दिया कि उससे कहीं अधिक स्नेह मुझे उनसे मिल रहा है और वह भी उनके काम के जरिये। चाहे चरखे पर कताई हो या कारपेट बुनाई, आर्टिजंस व कतवारिन अपने काम से स्नेह कर मेरे प्रति स्नेह भाव को प्रबल करते हैं। यह भाव ही मेरे यहां उत्पादकता बढ़ाने वाला साबित हुआ। इस उत्पादकता के साथ क्वालिटी अच्छी बनी। अच्छी क्वालिटी बनी तो विश्व बाजार तक पहुंचने और वहां स्थापित होने का अवसर मिला। इन सबके मूल में था, धर्म का वह मर्म, जो मैंने समझा और जाना। चालीस हजार से अधिक आर्टिजंस, कतवारिन व अन्य सहयोगियों का जो परिवार है, उसके प्रति मेरे नेह भाव ने उनके मन के द्वार खोले और मेरे नेह को उसमें उन्होंने प्रवेश दिया और अपने स्नेह को अपने काम के जरिये समर्पित किया। इस तरह मैं कह सकता हूं कि धर्म का मतलब केवल पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन, मंदिर-प्रसाद आदि तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके और भी आयाम हैं। धर्म की सच्चाई एक मनुष्य को कर्म की राह पर चलने के लिए प्रेरित करती है। यह प्रेरणा ही एक कारोबारी की सफलता का आधार होता है। मेरा अनुभव तो यही कहता है।