सत्तर के दशक में मैंने जब अपना कारोबार प्रारंभ किया था, मुझे सामाजिक उद्यमिता का भान नहीं था और इस शब्द के बारे में कोई जानकारी भी नहीं थी। मेरे लिए व्यवसाय का मतलब था प्रेम से सेवा करो और उनके साथ रहो, जिन्हें सही मायने में जरूरत है। मेरा मानना है कि मेरे वीवर्स अर्थात् आर्टिजंस अगर खुश हैं, तो वे अच्छा काम करेंगे और अच्छा काम ही अच्छे कारोबार का आधार होता है। लोगों के साथ अच्छे बने रहना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। इस बात के कोई मायने नहीं है कि कौन किस जाति से है। इस परिदृश्य में दो बातें बनी, पहली सामाजिक गतिविधि और दूसरे निरंतर बने रहना। मेरी सोच यह है कि व्यवसाय सामाजिक परिदृश्य से संचालित हो और सिविल सोसायटी के लिए आधार बने। हम कोई भी कारोबार करते हैं, उसके तीन स्वरूप होते हैं, पहला उत्पादन अर्थात् उद्योग, दूसरा व्यापार यह थोक या खुदरा दोनों तरह का हो सकता है और तीसरा सेवा क्षेत्र अर्थात सर्विस सैक्टर। यहां मैं उत्पादन अर्थात् उद्योग की चर्चा पर फोकस करूंगा। मैंने अपने काम का जो मॉडल बनाया है, उसके मूल में है महात्मा गांधी का ग्राम स्वावलंबन का सिद्धांत। महात्मा गांधी जी कहते थे कि गांवों को आत्मनिर्भर बनाये बिना देश का विकास नहीं हो सकता। कृषि की स्थिति सभी के सामने है। गांवों में जल स्तर काफी घट गया है, इस कारण अधिकतर इलाकों में खरीफ की खेती ही ली जाती है और रबी की खेती के लिए पर्याप्त पानी सभी जगह उपलब्ध नहीं है। जिस कारण खेती करने वाला किसान और खेतीहर मजदूर मोटे तौर पर आठ-नौ माह बेरोजगार सरीखे रहते हैं। भारत सरकार ने हालांकि मनरेगा सरीखी योजना संचालित कर रखी है, जिसके तहत एक परिवार को एक वर्ष में एक सौ दिन तक रोजगार सुलभ कराये जाने की बात है, लेकिन यह कोटा पूरा हो जाने के बाद भी बहुत सा समय होता है जबकि ग्रामीणों के पास रोजगार नहीं होता। फिर हमारी नारी शक्ति जो खेती के दौरान तो खेतों में काम कर लेती है, वे भी काम के अभाव से त्रस्त होती हैं। हमारे गांवों में लघु एवं कुटीर उद्योग उतने स्थापित नहीं हुए, जिनसे सभी के लिए रोजगार के अवसर सृजित हो सकें। इस स्थिति ने गांवों से पलायन को न केवल जन्म दिया बल्कि इस पलायन को बढ़ाया है। देश के गांवों की यह स्थिति देखकर मैं बहुत द्रवित होता था।
बस यहीं से मेरे मन में एक कंसेप्ट ने जन्म लिया और वह है सामाजिक उद्यमिता का। मुझे खुशी है कि सामाजिक उद्यमिता के इस कंसेप्ट के जरिये हजारों की तादाद में महिलाओं को श्रमिक से आर्टिजन तथा आर्टिजन से आर्टिस्ट तक के मुकाम तक पहुंचाने का काम जयपुर रग्स ने किया है। बीकानेर जिले के सुदूर इलाकों में जहां नहर नहीं आती, वहां के लोग केवल खरीफ की खेती और पशु पालन पर निर्भर हैं। उससे उतनी आमदनी नहीं होती, जिससे एक परिवार का गुजर-बसर हो सके। ऐसे परिवारों की स्थिति देखकर मैंने सामाजिक उद्यमिता अवधारणा के तहत वूल की कताई के काम पर फोकस किया। चाहता तो काम की लागत की दृष्टि से मैं वूल कताई का काम मशीन से भी करवा सकता था, फिनिश भी ठीक आ सकता था, लेकिन मेरी मंशा थी ग्रामीण महिलाओं को घर बैठे रोजगार मिले। इसलिए बीकानेर मंडी से जो रफ वूल हम खरीदते हैं, उसे कतवाने के लिए ग्रामीण महिलाओं तक पहुंचाते हैं और ये महिलाएं चरखे से कात कर उसका यार्न बनाकर हमें देती है। मुझे संतोष है इस बात का कि तीन हजार से अधिक कतवारिनों को इस प्रक्रिया में रोजगार मिला है और वे अपनी आमदनी के जरिये अपने अपने परिवार को आर्थिक संबल दे रही हैं। इसके पहले भेड़पालक किसानों की बात। आज के युग में उनका बड़ा समूह है और वे भेड़ों से जो वूल उतारते हैं उसका बड़ा हिस्सा बीकानेर मंडी में आता है और इसका एक बड़ा हिस्सा खरीद कर हम भेड़ पालकों के लिए उचित मूल्य सुनिश्चित करते हैं। बड़ी तादाद में भेड़-पालकों को भी रोजगार मिल रहा है। यह वूल प्रोसेस होने के बाद जब कारपेट बुनाई योग्य यार्न बन कर तैयार हो जाती है तो बड़ी तादाद में हम आर्टिजंस को ये यार्न भेजते हैं।
देश के अनेक गांवों में हजारों की तादाद में कारपेट बुनकर हैं, जिनमें अधिकतर महिलाएं हैं वे अपने घर बैठकर यार्न से कारपेट बुनाई का काम करती हैं। इन महिलाओं के काम से विगत दो दशक के दौरान राजस्थान और उत्तर प्रदेश के अनेक गांवों में इकोनॉमिक टंसफॉर्मेशन का काम हुआ है। अनेक गांव तो ऐसे हैं जहां इन बुनकरों को मिलने वाले पारिश्रमिक से संबंधित गांव की बाजार अर्थ-व्यवस्था संचालित होती है। अनेक गांव ऐसे हैं जहां जयपुर रग्स ने पलायन रोका है, सक्राय गांव का उदाहरण सामने है जहां एक जाति विशेष के सवा सौ परिवार पलायन कर गये, लेकिन जयपुर रग्स का काम शुरू होने के बाद वहां महिलाओं को रोजगार मिला तो पुरूष भी गांव ठहर गये और इस तरह पलायन रूका। तीसरा बड़ा काम जयपुर रग्स ने यह किया कि ग्रामीण महिलाओं में उद्यमशीलता ही नहीं बल्कि क्रियेशन को बढ़ावा दिया। यूं कारपेट बुनाई के लिए डिजाइन और मैप सामान्यत: जाता है, उक्त डिजाइन के अनुसार बुनाई करना भी एक आर्टिजन के भीतर की कलात्मकता को विकसित करता है। हमने मनचाहा कारपेट का नया कंसेप्ट डवलप किया, जिसके जरिये आर्टिजन को अपने मन-माकिफ डिजाइन से कारपेट बनाने की स्वतंत्रता रहती है। इसमें सैंकड़ों तरह के सृजन हमें देखने को मिले हैं। सीकर जिले की श्रीमाधोपुर तहसील का आसपुरा गांव तो इस तरह के आर्टिस्ट का गढ़ बन गया है, जहां अनपढ़ महिलाओं ने अपने हुनर के जरिये वैश्विक स्तर पर अवार्ड प्राप्त होने वाले कारपेट डिजाइन कर लिये। यह बात मैं सिर्फ इसलिए बता रहा हूं कि देश भर के गांवों में हुनर और उद्यमिता बिखरी पड़ी है। जो उद्यमी है, वह इसे न केवल सहेज सकता है बल्कि गांवों में उस हुनर को मौका देकर उद्यमिता को प्रमोट कर सकता है। जयपुर रग्स एक मॉडल है, जिसके जरिये गांवों में इकोनॉमिक टंसफॉर्मेशन लाया जा सकता है। यही सच्ची सामाजिक उद्यमिता का स्वरूप है। कोटपूतली-बहरोड़ जिले की विराटनगर तहसील के गांव भासिंघपुरा की महिलाएं तो बुनाई करते वक्त कारपेट गीत गाती है, जो खुद उन्होंने ही लिखा और स्वरबद्ध किया है। अर्थात् काम को उन्होंने बोझ नहीं माना बल्कि आनंद पूर्वक कैसे किया जाता है, इसकी मिसाल कायम की है। यह सही है कि मशीनीकरण का युग है, एआई (आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस) तक हम पहुंच गये हैं, लेकिन बावजूद इसके गांवों में परिवारों को सच्ची आत्मनिर्भरता की जरूरत है और यह सामाजिक उद्यमिता के जरिये ही संभव हो सकता है।