यह विश्व शक्ति की धुरी पर घूम रहा है, जो कुछ भी चल बल दिखाई दे रहा है, उसके मूल में शक्ति का ही स्रोत है, शक्ति के बिना एक तिनका भी नहीं हिल सकता। जड़ वस्तुओं में भी इस शक्ति का दिग्दर्शन होता है, मनुष्य तो इस शक्ति को ही प्रचुर मात्रा में धारण किये हुए है। उसके बल पर वह देव तुल्य भी हो जाता है। पर विडंबना वाली बात यह है कि हमने अपने स्वरूप को पहचानना ही भुला दिया। वस्तुत: हम एक विचित्र से भुलावे में हैं और भ्रमित भी। यदि हमें अपने सामथ्र्य का ज्ञान हो जाये, तो हम पता नहीं कहां से कहां पहुंच सकते हैं। घोड़े-हाथी जो कभी हमारी सवारी के तौर पर काम आते थे, यदि अपनी शक्ति को समझ जायें तो हमारे बंधन में नहीं रह सके। ठीक इसी तरह यदि हम अपने सामथ्र्य को समझ जायें तो मात्र मनुष्य नहीं रहेंगे या हमारा अपना जीवन औपचारिक नहीं रहेगा बल्कि किसी मिशन या मकसद के साथ गतिशील होता दिखाई देगा। अगर हम अपने सामथ्र्य को समझ लें, तो परिस्थितियों के गुलाम नहीं हो सकते, यह ज्ञान होने पर हमें कुछ भी भार महसूस नहीं होता बल्कि यह लगता है कि हां हम कर सकते हैं। हुत बार ऐसे हालात आते हैं, जब कि हम कह बैठते हैं कि क्या करें समय अनुकूल नहीं था, किसी ने हमारी सहायता नहीं की, या हमें मौका नहीं मिला। ये शिकायतें निरर्थक हैं, बल्कि अपनी कमजोरी किसी और पर लादने की कोशिश मात्र। अपने दिल को खुश रखने के लिए या किसी और के समक्ष सफाई देने के लिए इस तरह की बातें की और कही जाती है। हम कभी भाग्य को दोष देते हैं, कभी ईश्वर को और कभी ग्रहों की चाल को ही कारण बता देते हैं। ऐसे में ईश्वर की आराधना करते हैं, सवा मणी का प्रसाद बोलते हैं, गोविंद देव जी या मोती डूंगरी के गणेश जी को कहते हैं प्रभु मेरा वह काम करवा दो इतना प्रसाद चढ़ा दूंगा। जब मनोकामना पूरी नहीं होती तो गणेश जी या गोविंद देव जी को दोष देते हैं कि मैंने तो देवी-देवताओं को कहा था उन्होंने सुनी नहीं। यह सब स्थिति इस कारण आती है कि हमें खुद पर विश्वास ही नहीं होता। जब हम हमारी किसी और से तुलना करते हैं, तो परमात्मा के न्याय पर भी अंगुली उठाने लगते हैं और कहते हैं कि फलां हमसे अधिक धनी, अधिक सुखी और अधिक विद्वान है। पर हम यह नहीं देखते कि जिस परिश्रम या कुशलता से उस व्यक्ति ने अपने आप को स्थापित किया है क्या वह कुशलता हम में है। व्यवहारिक सच है कि ईश्वर किसी के साथ पक्षपात नहीं करता, बल्कि उसने सभी को आत्म शक्ति अपने मुक्त हाथों से प्रदान की है, जिसके आधार पर हर व्यक्ति आगे बढ़ सकता है। अवसरों की कमी किसी के पास नहीं होती बस लाभ लेना आना चाहिये। जब हम विफल हो जाते हैं, तो आत्म विश्लेषण जरूर करना चाहिये कि ऐसे क्या कारण रहे जो ऐसा हुआ। हमारा चित्त स्थिर नहीं था या हमारा खुद पर विश्वास नहीं था।
वर्तमान समय में हम जिस अवस्था में है, वह वस्तुत: खुद हमारी ही पसंद की हुई है। प्रारंभ में जिस प्रकार की आदतें पड़ गई, जिस प्रकार के विचार बन गये, उसी दशा और दिशा में हम होते हैं। इस दशा और दिशा से छुटकारा भी दिलाने के लिए कोई और नहीं आयेगा, बल्कि खुद हमें ही जागना होगा। जब तक यह विश्वास नहीं हो जाये कि हम अपने अनुकूल चाहे जैसी अवस्था का निर्माण कर सकते हैं, तब तक हमारे पैर उन्नति की ओर बढ़ ही नहीं सकते। पुराने संस्कारों या रूढि़वाद ने हमारे आत्म प्रकाश को ढक सा लिया है, अगर आगे भी न संभले तो हो सकता है कि जो दिव्य तेज हमारे भीतर है वह क्षीण हो जाये। महापुरूषों की बातें जीवनियां आदि हम पढ़ते हैं, उनके बारे में किस्से-कहानियां भी सुनते हैं। उनके बारे में सुनने से पता चलता है कि उन्होंने किस तरह से अपनी जीवन यात्रा को गतिशील किया और प्रारंभ में एक सामान्य बल्कि गरीबी से जीवन प्रारंभ कर अपने मुकाम को हासिल किया। धीरे-धीरे महान कार्यों का संपादन किया और अदभुत सफलताएं प्राप्त की। जिन्हें चमत्कार ही कहा जा सकता है, चाहे गौतम बुद्ध की बात करें, चाहे स्वामी विवेकानंद की, चाहे स्वामी दयानंद सरस्वती की और चाहे महात्मा गांधी की। जिस मंत्र के बूते उन्होंने अपने आप को स्थापित किया, उसका नाम है आत्मविश्वास अर्थात खुद पर भरोसा। वैसे भी ईश्वर उस की मदद सबसे पहले करता है, जो खुद अपनी मदद करता है। व्यापार-उद्योग के संदर्भ में यहां यह जानना महत्वपूर्ण है बल्कि एक संदेश है कि विपरीत परिस्थितियां अगर आ गई हैं, तो सबसे पहले अपनी मानसिक निर्बलता को दूर कीजिये। अपने भीतर के आत्मविश्वास को जगायें तथा यह सुनिश्चित करें कि अपने मजबूत पांव पर खड़े होकर मैं अपने भाग्य का निर्माण खुद करूंगा, मेरे भाग्य का विधाता कोई देवी देवता नहीं, कोई राहु-मंगल नहीं बल्कि मैं खुद हूं। जिस तरह हम इस आत्मविश्वास को ग्रहण कर लेंगे, उस दिन हमारे कदम चल पड़ेंगे। शारीरिक और मानसिक उर्जा का समन्वय बनेगा और हम अपनी मंजिल पा सकेंगे। सच तो यह है कि संसार में दुर्लभ कुछ भी नहीं है, बस जरूरत है यत्न की और यत्न के साथ आत्मविश्वास की कि मैं कर सकता हूं। एक कारोबारी यह भाव अपने कर्मचारियों-अधिकारियों में जागृत करे और बनाये रखे तो वह अधिक सफलता पा सकता है, इसके लिए नियोक्ता को चाहिये कि वह समय-समय पर अपने कर्मचारियों-श्रमिकों से खुद संवाद करे और उनके मन के विश्वास को जागृत करने में सहयोग करे। यह संवाद एक कर्मचारी की कर्म-शक्ति को बढ़ाता है और वह बेहतर आउटपुट देने में फिर कामयाब भी हो सकता है।